हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय के साथ भी कुछ न कुछ अवश्य रहा होगा जिसका उच्चारण फारसी में कुकनूस हुआ करता है। पृष्ठ १६५ पंक्ति ११ । उन्नतीकरण-मन कभी भी पूर्णत: निष्क्रिय नहीं रह सकता। यह एक वस्तु की ओर से दूसरो की अोर प्रवाहित होता रहेगा और जिस किसी वस्तु ओर चला जायगा उसके गुण ग्रहण कर लेगा। कबीर के शब्दों में मन ऐसा पक्षी है जो सभी दिशाओं में उड़ा करता है और जिस वृक्ष पर बैठता है उसके फल खा लेता है।* इसे पापों की ओर भ्रमण करने से रोकने के लिए यह आवश्यक है कि न केवज इसके मार्ग में बाधा डाली जाय, प्रत्युत, इसके लिए ऐसी विशु- द्धतर नालियाँ बना दी जाय जिनसे होकर यह अबाधित रूप से और सरलतापूर्वक प्रवाहित हो सके । समस्या का हल इसे केवल दबा देने अथवा मनोमारण से ही नहीं हो सकता। कबीर ने कहा कि "मन को दबा कर कौन सफल हो सका ? वस्तुतः इसे कौन दबा ही सकता है ? और फिर यदि तुमने मन को दबा ही दिया तो मुक्ति किस लिए चाहते हो ? वह तो मन में ही है यही सभी कोई कहते हैं। और फिर भी कबीर का यही कहना है कि बिना मन के मारे भक्ति नहीं हो सकती। जो कोई इस भेद परिचित हो उसे विदित हो जायगा कि स्वयं मन ही तीनों भुवनों को स्वामी है ।+ 'नूरी' मन ( अर्थात् ज्योतिर्मय मन )
- -कबीर मन पंखी भयो, उडि उडि दह दिसि जाइ ।
जो जैसी संगति मिलै, सो तैसो फल खाइ । 'क० ग्रं०', (२५७-१०४) I :-मनका स्वभाव मनहिं बियापी, मनहिं मारि कवन सिधि थापी। कवन सु मुनि जो मनको मारे, मनको मारि कहहु किस तारै ।। क० ग्रं० (३१५-२५८) +-मन अंतर बोलै सब कोई। मन मारे बिन भगति न होई । कहु कबीर जो जानै भेऊ । मन मधुसूदन त्रिभुवन देऊ । क० न०, (३१५-२५८)