परिशिष्ट ३ ४१३ अमर है" उनका फिर भी कथन है कि, इस दूधभाव में भी, मैं वह निरपेक्ष ब्रह्म हूँ जिसके लिए एक और दो का प्रश्न नहीं उठ सकता।"x पृष्ठ १४३ यक्ति २ । द्वधीमाया-माया के भी इस द्वैधीभाव के विषय में रजब ने कहा है, "कि मन और माया के समान कोई अब शत्रु वा मित्र नहीं है । पाप और पुण्य के लिए यही दोनों उत्तरदायी हैं। एक अन्य स्थल पर वे यह भी कहते हैं कि, पुत्र (साधक) माता (माया) को खा लेता है और माता ( माया) अपने पुत्र (सांसा- रिक मनुष्य ) को खा जाती है। माया का नितांत परित्याग साधारण काम नहीं है । ऐसा करते समय सावधान रहना पड़ता है। कबीर का कहना है मैंने बड़े प्रयत्न के साथ एक नाव (सर्प) समुद्र के बीच में पायी है । यदि मैं इसे पूर्णत: छोड़ देता हूँ तो डूब जाता हूँ और यदि इसे मैं पकड़े रहना चाहता हूँ तो यह मुझे डस लेती है। इस कारण इसे संभाल लेना बड़ी निपुणता व चतुरता का काम है। व्यवहार करते समय इसे उनटकर काट खाने का अवसर नहीं देना चाहिए। यदि कोई माया को इस प्रकार पूर्णत: वश में रखकर काम करता है तो वह उसका उपभोग X---ले समाधि रस पीजिए, दादू जब लगि दोइ । बानी ( बेन ० ) भा० १ पृ० ७८, वही पृ० ७८ ( ३१५ ) और पृ० ६१ ( ४४-५) भी देखिए । -रज्जब माया मन समि बेरी मीत न कोइ । कुकृत उपजै इनहुँ सौ इनसौं सुकृत होइ ॥ रज्जब एक पूत मातहि भषै, एक मात सुत खाइ । विभुति सुवी छनी व्याउनी, नर देखौ विरताइ ।। 'सर्वांगी' अंग १६, साखी ७ (पौड़ी हस्तलेख ) ।
- -भला पाया श्रम सों, भवसागर के माँहि ।
जौ छाँडौं तो बिहौं, गहौं तौ डसिये बाँह ।। क० ग्र०, (११-४३)।