. हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय पूजा के लिए अपने ईश्वर को मोल लेना और फिर उसी से मुक्ति की अभिलाषा भी करता अनियमित प्राचरण नहीं है ?" कबीर कहते हैं कि, “पंडितों ने यह एक बुरी प्रथा चला दी है । जिस कारण सारी पृथ्वी पर पत्थर बिखेर दिये जाते हैं।” “वे लोग मूर्ति को कपड़े पिन्हाते हैं, उसके माथे पर चंदन लगाते हैं और उसे माला भी दे देते हैं, जान पड़ता है कि लोगों ने राम को खिलौना मान लिया है।" पृष्ठ ३५३ पंक्ति १४ । प्रेम का द्वैधभाव-अवतवादी भीखा भी अपने इस कथन-द्वारा लगभग इसी प्रकार बतलाते हैं कि 'अपने प्रियतम को अपने नेत्रों को सेजपर पौढ़ाने का श्रानन्द हृदय में ही पा सकता है मैं तो कहता हूँ कि ब्रह्म एवं प्रात्मा एक हैं, किन्तु मिलन के उस आनन्द को कौन छिपा सकता है ?'+ और भीखा का अभिप्राय यहाँ पर स्पष्टतः द्वौतप्रभावित नहीं है। दादू भी कहते हैं कि, द्वैत की भावना है तब तक प्रेमरस का पान करो; तभी तक शरीर . "जब तक. +-ठाकर पूजहि मोल ले, मन हठि तीरथ जाहिं । देवा देवी स्वांग धरि, भूले भटका खाहिं ।। का० ० ( २५४-७१)। कागद केरी ओवरी, मसि के कर्म कपाट । पाहण वोई (री) पिर थिमी, पंडित पाड़ी बाट । वही, ( ४३ २, २५०-२२ ) । माथे तिलक हथि माला बाना । लोगन राम खिलौना जाना ।। वही, २१३ । +-नयन सेज पिय पवड़ाई, सो सुख मौज दिल हि में जनाई। बोलत ब्रह्म आतमा एके, भाव मिलन को सकै दुराई ॥ म० बा॰, पृ० ११६ ।
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