३६६ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय ऐसे ग्रंथों के अनुसार कलियुग में कबीर उन्हीं के उद्धार के लिए प्रयत्न करते हैं जो निरंजन के प्रति वचनबद्ध नहीं रहा करते । फिर भी निरंजन ने कबीर को धोखा देकर उनसे नाम का रहस्य जान लिया है और उसके आधार पर उसने निर्गुणमत के द्वादश पंथ प्रचलित कर दिये हैं जिनसे धार्मिक पुरुषों को उस धर्मदास के अनुयायियों को शरण में जाने में बाधा पहुँचती है जिनके वंश के लिए कबीर ने निरन्तर बयालिस पीढ़ियों तक नेतृत्व करने की परंपरा चला दी थी। इन द्वादश पंथों में नारायणदास ( मृत्यु अंधादून) सुरतगोपाल (अंधश्रचेत) कमान ( मनमकरंद ) प्राणनाथ ( अकिलभंग अथवा विजयदूत ) और जग- जीवन ( नकटानैन ) द्वारा प्रचलित किये पंथ आते हैं और उनके प्रवर्तकों के नाम अवज्ञापूर्वक रचे गये हैं जैसा कि कोष्ट में दिये गये शब्दों से प्रकट है। कहा जाता है कि कबीर ने तीन अन्य काल्पनिक वंशों को भी इसी प्रकार प्रादेश दिये थे जिनमें कुशहर द्वीप के कर्णाटक नगर के २७ पीढ़ियोंवाले चतुर्भुजदास प्लक्ष द्वीप के दर्भगा नगर के १६ पीढ़ियोंचाले वंकेजी और शाल्मली द्वोपस्थ महापुर नागरिक ७ पीढ़ियोंवाले सहतेजी हैं। किंतु ऐसी रचनाओं को कबीर के वास्तविक उपदेशों का प्रचार करनेवाला ग्रंथ नहीं कहा जा सकता । इनका उनकी अपनी कृति मान लिया जाना तो और भी असंभव है। उक्त सभी रचनाएँ १८ वी ईस्वो शताब्दी वा उसके पीछे को हैं । इनमें से सबसे प्राचीन 'सुखनिधान' होगा जिसमें दिये गये पौराणिक उपाख्यान उतने विस्तृत नहीं हैं । 'अनुराग सागर' उस समय की रचना है जब प्राणनाथ ( सन् १६१८-१६६४ ई० ) ने धामी संप्रदाय का प्रवर्तन कर दिया था और जगजीवनदास (जन्म सन् १६७० ) ने अपना सतनामी संप्रदाय प्रचलित किया था। इसको सबसे प्राचीन प्रति, स्वामी युगजानन्द के अनुसार, प्रबोध नाम 'वाला पीर' (सन् १७१६-१७४४ ई.) के समय की है और यही उसका वास्तविक ~
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