। परिशिष्ट २ ३६५ (भा० ११ ) एक बहुत अाधुनिक ग्रंथ है क्योंकि इसमें संसार के सभी धर्मों की चर्चा की गई है और इसमें कतिपय भाषाविज्ञान के प्रश्न तक छेड़े गये हैं। कबीरचरित्रबोध एक गद्य ग्रंथ है और कदाचित संपादक की हो रचना है जिसमें कबीर का जीवनचरित्र, पौराणिक ढंग से लिखा गया है । गद्य की कुछ अन्य रचनाएँ भी यत्र-तन्त्र पायी जाती हैं जिनमें से कुछ तो अवश्य ही संपादक की कृतियाँ हैं। 'सुखविधान' नामक ग्रंथ में ब्रह्म, माया, जीवात्मा श्रादि का विवेचन है और कुछ ऐसो धार्मिक बातें भी उसमें दो गई हैं जिनसे पता चलता है कि धमदास किस प्रकार कबीर के शिष्य हुए थे। विल्सन साहब ने इसका रचयिता सुरतगोपाल को माना है जो कबीरपंथ की काशीवाली शाखा के प्रवर्तक थे। किंतु काशीवाली शाखा इस प्रकार के साहित्यिक प्रयत्नों से पूर्णत: मुक्त है और यदि उसने कभी ऐसा कदम उठाया भी है तो वह 'बीजक' ग्रंथ की टीका-टिप्पणियों तक ही सीमित रह गया है। 'निर्भय ज्ञान' 'भेदसार' व 'श्रादि टकसार' जैसे कुछ अन्य ग्रंथ हैं जिन्हें हम कबीरसागर में सम्मिलित पुस्तकों की श्रेणी में रख सकते हैं । गोरखगोष्टो व रामानंदगोष्ठी में कबीर के साथ उन महात्माओं की बातचीत करायी गई है । इन रचनाओं का महत्व इस बात में है कि इनके द्वारा पता चल जाता है कि कबीर के उपदेशों को उनके अनुयायियों और विशेषकर धर्मदासी शाखावालों के कारण कौन सा रूप मिल गया। उन्हें देखने पर उन्हें कबीरकृत नहीं स्वीकार किया जा सकता। उनके आधार पर उक्त शाखा का इतिहास लिखने में भी सहायता मिल सकती है। उदाहरण के लिए 'अनुरागसागर' से पता चलता है कि धर्मदास से छठी पीढ़ी में धर्मदासी शाखा की महंती के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में गंभीर झगड़े हुए थे। उसमें कबीर के उपदेशों पर प्राश्रित अन्य पंथों के ऊपर किये गये दोषारोपणों के उदाहरण भी मिलते हैं। अनुरागसागर एवं अन्य
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