३६१ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय संतोषबोध ( सभी भा० ८) और स्वासगुंजार ( भा० १०) में गुह्यविद्या की बातें दी गई हैं। कर्मबोध ( भा० ७ ) में कर्म व उसके परिणामों का वर्णन है। ज्ञानबोध, भवतारणबोध, मुक्तिबोध और कबीरबानी ( सभी भा० ७ ), नाम की सच्ची महिमा का वर्णन करते हैं और उन अन्य बहुत सी बातों की भी चर्चा करते हैं जो, धर्मदास के अनुयायियों के अनुसार धार्मिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। कबीरपंथ ने हिंदुओं आदि के वर्तमान पौराणिक साहित्य से भी लाभ उठाया है और उनके आधार पर अपने आदर्शों व भावनाओं के प्रचार का प्रयत्न किया है। 'पागम निगमबोध' ( भा० १०) में भिन्न- भिन्न धार्मिक संप्रदायों और उनके प्रचारकों जैसी प्रकीर्णक बातों के वर्ण- पाये जाते हैं। उग्रगीता (भा० ८ ) में कबोरपंथी-विचारानुसार 'भगवद्गीता' की बातें दी गई हैं । कहीं-कहीं तो महत्वपूर्ण स्थलों पर मूल का अक्षरशः, अनुवाद तक मिलता है। मुख्य विपय तथा संवादों की संख्या तक में अंतर नहीं दीखता । कृष्ण से अंत में निर्गुण भक्ति का उपदेश दिलाया गया है और कहा गया है कि निर्गण सगुण से श्रेष्ठ है किंतु वास्तविक परमात्मा निर्गुण से भो परे है। जैनबोध में जनधर्म का वर्णन है जिसे कबीरपंथी लोग उसके अहिंसा-सिद्धान्त के कारण महत्व देते हैं। अलिफनामा (भा० ७) एक उपदेशात्मक ग्रंथ है जिसका प्रत्येक पथ फारसी वर्णमाला के अक्षरों से प्रारम्भ होता है । कबीरबोध ( भा. ६) भूल से कबीरपंथ की रचना समझा जाता है। यह गोरखनाथ के मुस्लिम अनुयायी बाबा रतनहाजी की कृति जान पड़ता है। यह भी बहुत संभव है कि यह ग्रंथ गोरखपंथ व कबीरपंथ के बीच को एक कड़ी सिद्ध हो जाय । कबीरबानी (भा०७ ) नाम सूचित करता है कि यह कबीर की रचना है किंतु इसके अंतर्गत सं० १७७५ वि०. विषयक भविष्यवाणी के आने के कारण यह उस समय के पीछे को रचना जान पड़ती है। जीवधर्मबोध
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