म हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय जिसका लिपिकाल सं० १६४१ वि० है, यह विशेषता है और यह बात कालिदास के 'अभिज्ञान शकुन्तला' के कदाचित् सबसे प्राचीन उस हस्तलेख (लिपिकाल सं० १६६० वि० ) में भी दीर्ख पड़ती है जो काशी-हिंदू-विश्वविद्यालय के पं० केशवप्रसाद मिश्र के यहाँ सुरक्षित. है। हो सकता है कि उस हस्तलेख की पुष्पिका भी उसी लिपिकार की लिखी हो और उसने इसे बहुत घिसी हुई किसी लेखनी-द्वारा शीघ्रता में लिख दिया हो । व, ल, न एवं य संयुक्ताक्षर अक्षरों में पायी जाने वाली समानता बहुत स्पष्ट है। पहले यह प्रथा थी, और आज भी देखी जाती है, कि लिपिकार पुस्तकों की विशेष मांगवाली प्रतिलिपियाँ कभी-कभी पहले से प्रस्तुत किये रहते थे और उन्हें किसी के हाथ देते समय उनके अन्त में पुष्पिका जोड़ देते थे। सम्भव है कि यही बात इस हस्तलेख के सम्बन्ध में भी हुई हो। नवीन लिपि की स्याही के फीकेपन के ही कारण सम्भव है, दुहराना भी पड़ा हो। इस दुहराने के कारण यदि हस्तलेख ( क ) की प्रामा- णिकता न भी स्वीकार की जाय, तो भी 'कबीर-ग्रन्थावली' के महत्व की उपेक्षा यों ही नहीं की जा सकती। (ख ) नामक हस्तलेख नितांत संदिग्ध नहीं है। स्वयं मेरे पास दो हस्तलेख हैं जिनमें से एक का लिपिकाल सं० १८१६ वि० (सन् १७५६ ई० ) है और दूसरे पर कोई समय नहीं दिया है और ये दोनों हस्तलेख (क ) की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं। पौड़ीहस्तलेख' में सम्मिलित 'कबीरबानी' भी जिसका वर्णन नीचे दिया जाता है इस प्रति से मुख्य-मुख्य बातों में भिन्न नहीं है और जोधपुर लाइब्रेरी में सुरक्षित व सं० १८३० वि० में लिखित कबीर की रचनाओं के आदि, मध्य तथा अन्त में दिये गये उदाहरणों से प -दे० श्यामसुन्दरदास एवं पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल द्वारा सम्पादित 'गोस्वामी तुलसीदास' के पृ० १०४ के सामने का प्रतिचित्र)।
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