हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय उचित नहीं।", वह भीतर ही भीतर बेचैन रहती है, किंतु, अपनी कृत्रिम लज्जा का परित्याग नहीं कर पाती। पर्दे का हटना तभी संभव है जब परमात्मा स्वयं दयापूर्वक उसके निकट, अनजान में, आ जाय और नदी तट पर उसके एकांत, शीतल और सुगंधिमय स्थान के कारण, "मिलन के लिए उत्साहित बनी हुई, उस प्रेमिका का धुंध स्वयं अपने हाथों से उठा दे IN यही भक्ति भाव से भरी मनोवृत्ति के लिए उपयुक्त भी है। यद्यपि भक्त को उस माया (अपने पर्दे ) की हटाने के लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं जो उसके एवं भगवान् के बीच खड़ी रहती है, फिर भी भगवान की कृपा के द्वारा ही वह दूर की जा सकती है। । यद्यपि निर्गुणो संतों के प्रेम-रूपक कभी-कभो श्रृंगार भाव तक पहुँचते हुए जान पड़ते हैं फिर भी उससे उनके चित्त का विपर्यय नहीं सूचित होता । वे अपनी कल्पना के लिए वह स्वेच्छाचारिता नहीं चाहते जिसे कई एक बनावटी संतों ने अपनी संभोगपरक अभिलाषा को छिपाने के लिए, श्रावरण बना रखा था। उमरखय्याम की रुबाइयों मैं' ऐसी कोई भी बात लक्षित नहीं होती, जिससे उसके मन एवं कामिनी को हम उनके उसी रूप में सिद्ध न कर सकें। किंतु यही बात निर्गणो कवियों के संबन्ध में भी नहीं कही जा सकती। इनके शृंगारात्मक प्रतीकों से-यदि उन्हें शृंगारात्मक कहा जा सकता है-केवल यही सूचित होता है कि ये परमात्मा को एकांत भाव के साथ चाहते हैं और यही एकमात्र प्राधार उस विशिष्ट चेतना के लिए भी है जो आत्मद्रष्टा लोगों की विशेषता है। अपने प्रेम संगीत के स्वरूप पर हो टिप्पणी करते +--घूघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे ।।-( कबीर ) सं० बा० सं०, भा० २, पृ० १२ । V-नदिया किनारे बालम मोर रसिया दीन घूघट पट टारि ।। वही, पृ०६।
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