३६२ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय अपने रंग में ही रंगी हुई पाती है। परमात्मा से मिलने की उत्कंठी में ही नक्षत्र अपने-अपने चक्रों पर घूम रहे हैं और अपने प्रियतम के प्रेम की ही वे प्रदक्षिणा कर रहे हैं। सारा विश्व उसे प्रसन्न करने के निए बेचैन है और इसी के निमित्त उसके चरणों में अपने को अर्पित कर देना चाहता है । नानक कहते हैं "श्राकाश के थाल में सूर्य एवं चंद्रमा दीपक बने जल रहे हैं और नक्षत्रगण मोतियों के समान बिखरे हुए हैं। मलयपर्वत की ओर से आता हुआ अनिल धूप का काम देता है, हवा चमर डुला रही है और वृक्ष अपने सुन्दर-सुन्दर फूलों को उपहार में लेकर खड़े हैं । अनहद नाद की भेरी बज रही है। विश्व तेरे समक्ष क्या ही भली भारती कर रहा है !", दादू ने भी कहा है कि, "सूर्य और चन्द्रमा तेरी आरती कर रहे हैं; पृथ्वी, वायु व आकाश तेरा पूजन कर रहे हैं, सभी तेरी सेवा में लगे हुए हैं, हे मेरे निरंजन देव ।" विरह की आग एकबार प्रज्ज्वलित हो जाने पर फिर बुझना नहीं जानती। ऐसा कोई भी स्थान नहीं, जहाँ पर यह वर्तमान न हो। प्रत्येक वस्तु, जिसे आग का बुझनेवाला समझ कर कोई व्यक्ति अपनाना चाहता वह स्वयं जल उठता है, इसे बुझा नहीं पाता। कबीर का कहना है कि "विरह की आग से जलती हुई जब मैं तालाब के निकट जाती हूँ तो मुझे देखते ही वह स्वयं जलने लगता है। हे संतगण, मैं +---गगन में थाल रविचंद दीपक बने तारका मंडल जनक मोती । धूप मलयानिलो पौन चौरो करे बनराइ फूलंत जोती। कैसी आरति होइ भवखंडना तेरी आरती अनहता बाजत भेरी। गु० ग्रं० पृ० ३०८। t-चंद सूर आरति करै, नमो निरंजन देव । धरनी पवन अकास अराधे, सबै तुम्हारी सेव ।। दादू ॥ पौड़ी हस्तलेख, पृ० १०६ ।
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