३५८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय होता है । यह सच है कि निर्गुणियों की कुछ ऐसी भी बानियाँ हैं जिनके ऊपर कुछ दोषदर्शी समालोचक श्राक्षेप किया करते हैं x किंतु ऐसी कविताओं के भी काव्यगत सौंदर्य की कोई उपेक्षा नहीं कर सकता। प्रेमिका अपनी विरह-दशा में, दुःख भरे शब्दों के साथ, अपने हृदय के संदेश भेजती है । दादू कहते हैं कि "प्रियतम के वियोग में मरी जा रही हूँ और प्राण अभिलाषा की अतृप्ति में ही निकले जा रहे हैं। " "हाय, कभी-कभी तो मैं विरह की पीर का ऐसा अनुभव करती हूँ कि यदि मैं प्रियतम को देख न लू तो मर जाऊँ। हे सखी, मेरे दर्द की कहानी सुनो। प्रियतम के बिना मैं तड़पा करती हूँ जिस प्रकार मछली बिना जल के छटपटाया करती है उसी प्रकार मैं भी बिना प्रियतम के बेचैन रहती हूँ। प्रियतम से मिलने की उत्कट अभिलाषा में मैं रात दिन पती की भाँति गाकर अपनी पीर प्रकट किया करती हूँ । हाय, कौम ऐसा है जो मुझे उससे मिला देगा? कौन मुझे उसका मार्ग दिखला कर मुझे धैर्य बँधायेगा ? दादू कहते हैं कि हे स्वामी मुझे एक क्षण के लिए ही अपना मुख दिखला दो जिससे मुझे संतोष हो।" । तुलसी साहब का कहना है कि "विरह के कारण पागल बनकर मैं व्याकुल हो रही हूँ और मेरे नेत्रों में आँसुओं की झड़ी लगी है। प्रत्येक क्षण दर्द की टीस जान पड़ती है और मेरी सुधि-बुधि जाती रहती है, नाड़ी का परीक्षक वैद्य मेरे रोग का निदान नहीं कर सकता फिर उसकी दवा से क्या नाम है ? चिनगारी हृदय के अंतस्तन में लगी है उसे कोई शब्द कैसे व्यक्त कर सकता है ? तुलसी कहते हैं कि जिसे यह पीर नगती है वही इसे जान पाता है । साधारण प्रकार से आनंद प्रदान करनेवाली वस्तुएँ भी x-कबीर वचनावली, भूमिका, पृ० ३७१ । =-तारादत्त गेरोला:-
- --साम्स आफ दादू, पृ० १०० ।
1--वही पृ० ५-६ ॥ V--संतबानी संग्रह, भाम २ पृ० २४५ । .