हिन्दी काव्य में निगुण संप्रवाय इस संयोग को ही आध्यात्मिक विवाह कहा करते थे । और सारा का सारा सूफी काव्यं भी इसी रूपकात्मक भावना पर आश्रित है। "हिंदुओं के लिए भी यह भावना नितांत नयी न थी ! पुरुष एवं प्रकृति, सांख्य दर्शन के अनुसार विश्व की प्रेमभरी लीला में पुरुष एवं स्त्री के ही प्रतीक बहुत काल से समझे जाते आये। उपनिषदं भी, जिन्हें शुष्क तत्वज्ञान का ग्रन्थ समझा जाता है, परमात्मा के साथ जीवात्मा के मिलन की तुलना दो प्रेमियों के आलिंगन के साथ करती हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि "जिस प्रकार कोई पुरुष अपनी प्रियतमा-द्वारा प्रालिंगित होने पर, सभी बाहरी वा भीतरी बातों को एकदम भूल जाता है, इसी प्रकार जीवात्मा भी परमात्मा के साथ संयुक्त हो जाने पर सभी बाहरी वा भीतरी बातों का ज्ञान खो देता कृष्ण की प्रेमिका गोपिकाएँ वैदिक ऋचाओं की प्रतीक मानी जाती थीं और उनका प्रेम इतना उग्र था कि भगवान् के साथ अति निकट का संपर्क रखे बिना उन्हें संतोष ही न था। संत आंदाल ने जो एक बहुत प्राचीन श्राजवार संत कवयित्री थी, अपने गीतों में विष्णु के साथ सम्पन्न हुए अपने विवाह का स्वप्न देखा था। राबिया जो एक पुरानी सूफी थी रात के समय अपने घर की छत पर चली जाती थी और कहा करती थी कि "हे भगवन अब दिन का कोलाहल बंद हो गया और प्रेमी अपनी प्रिया के साथ हैं किंतु -तद्यथा प्रियया स्त्रिया सं परिष्वक्तो न बाह्य किंचन वेदनांतर- मेव मेवा यं पुरुषः प्रज्ञानेनात्मना संपरिष्वक्तो न बाह्य किंचन वेदनांतरम् तद्वा अस्व एतदाप्तकामं प्रात्मकामं अकामं रूपम् । बृहदारण्यक ४-३ २६ । t-तामील स्टडीज, पृ० ३२४, तथा कारपेंटर: थीज्म । पृ० ३८१।
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