पष्ठ अध्याय कर रही है उसके सिर पर चौपता कम्बल पड़ा है और वह जो कभी एक फूल का भी भार सहन नहीं कर सकती थी अपनी सखियों से रो-रो कर बातें । कम्बल ज्यों-ज्यों भीगता जा रहा है त्यों-त्यों वह भारी पड़ता जा रहा है ।" परमात्मा यहाँ पर दुलहा है और जीवात्मा दुलहिन है, अन्धकार का प्रावरण माया है, अगुए पुरोहित हैं, वर्षा सांसारिक दुःख है और चौपर्ता कम्बल वे कर्म हैं जिन्हें सांसारिक दुःखों से बचने की आशा में जीवात्मा किया करती है, किंतु जो नष्टं होने की जगह निरंतर बढ़ते ही जाते हैं और उस जीवात्मा के लिए भार- स्वरूप बन जाते हैं जो कभी अपनी मौलिक शुद्ध दशा में उनसे . मुक्त थी। दाम्पत्यप्रेम जो ईश्वरीय प्रेम का स्थान ग्रहण करता है हमारे इन ज्ञानी/ कवियों को बहुत पसन्द । वास्तव में इन प्रेमात्मक रूपकों के गीतों में ही. इनके हृदय अपने को पूर्ण रूप से ३.प्रेम का रूपक व्यक्त करते हुए जान पड़ते हैं। ईश्वरीय प्रेम का प्रतीक .. बनकर दाम्पत्यप्रेम आत्मद्रष्टा कवियों में सब कहीं अपनाया जाता आया है। अंग्रेज कवि 'पैटमोर' ने ईसाई धर्म के सम्बन्ध में लिखते हुए कहा था, "ईसा मसीह के साथ जीवात्मा का उनकी विवाहिता स्त्री का सम्बन्ध ही उस भक्तिभाव की कुंजी है जिससे युक्त होकर उनके प्रति प्रार्थना, प्रेम एवं श्रद्धा प्रदर्शित होनी चाहिए"* मध्यकालीन ईसाई योगी परमात्मा के साथ प्राप्त किये गये 1-उनइ बदरिया परिगौ संझा, अगुवा भूले वन खंड मंझा ।। पिय अंते धनि अते रहई, चौपरि कामरि माथे गहई ।। फुलवा भार न सहि सकै, कहै सखिन सों रोय । ज्यों-ज्यों भीजै कामरी, त्यों-त्यों भारी होय ॥ 'बीजक' रमैनी १५ ॥ -कवेंट्री पैटमोर 'मेम्वायर्स' १, १४६ ( मिस स्पर्जन द्वारा अपनी पुस्तक 'मिस्टिसिज्म इन इंग्लिश लिटरेचर', में उद्धृत । १० ४६।)
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