षष्ठ अध्याय ३४४ प्रकार की कविता आध्यात्मिक विस्तार के लिए एक शक्तिशाली साधन भी बन जाती है। संगीत के कारण श्रोता के भीतर एक प्रकार के तत्वगत एवं निन्ममित स्फुरण उत्पन्न होते हैं जो उसके भावुक स्वभाव को केन्द्र की ओर पूर्णत: गतिशील बना देते हैं और ईश्वरोन्मुख संगीत की भावप्रवणता के कारण उसके लिए आध्यात्मिक अनुभव का उपलब्ध कर लेना सरल हो जाता है। परन्तु ज्योंही निर्गुणी.. आध्यात्मिक अनुभूति के क्षेत्र से बाहर आता है त्योंही वह एक निरा उपदेशक बन जाता है। निर्गुणकाव्य का एक बहुत बड़ा अंश उपदेशात्मक ही है। कबीर के सिवाय निर्गण- पंथ के किसी भी अन्य संत ने नैतिक प्रवचन नहीं दिये हैं जो एक सच्चे काव्य के अंग होते हैं। केवल कबीर ने ही अपने उपदेशों को सुन्दर प्रतीकों का पहनावा देकर कभी-कभी सुसज्जित किया है। अन्य संत, काव्य के उच्चस्तर तक पहुँचकर भी कबीर में पायी जानेवाली प्रतीकों को विविधता प्रदर्शित नहीं कर पाते । वे लोग प्रेमात्मक प्रतीकों के अतिरिक्त केवल उन परंपरागत वेदांती रूपकों का ही अधिकतर प्रयोग करते हैं, जो अच्छे दृष्टांत होने पर भी स्पष्ट चित्रों की श्रेणी में नहीं आ सकते। जैसा कहा गया है, कबीर भी सदा काव्य के ऊँचे स्तर तक नहीं पहुंच पाये हैं। उनके पद्यों में केवल कुछ ही ऐसे हैं जो अच्छी कविता के अन्तर्गत पा सकते हैं और जिनमें प्रदर्शित चित्र भी सुन्दर हैं। शेष या तो उपदेशात्मक उद्गार हैं अथवा योग एवं वेदांत के विविध सिद्धान्तों के रूपकों द्वारा व्यक्त किये गये अंश हैं। इस प्रकार के कान्यों को हम काव्य की दृष्टि से रूपकात्मक नहीं कह सकते । कबीर की प्रसिद्ध उलट-बाँसियाँ भी अधिकतर नियमों के ही रूप में हैं । परन्तु जहाँ कहीं पर वे ऐसी भावनाओं से ऊपर उठ गये हैं वहाँ उनका प्रवेश सच्चे काव्य के क्षेत्र में हो गया है और ऐसी स्थिति में के कल्पना के एक विशेष आलोक से विभूषित जान पड़ते हैं । ऐसे समय उनको कल्पना के अंतर्गत एक ऐसी
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४३१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।