षष्ठ अध्याय भी थी । संत लोग ऐसे प्रश्नों के उत्तर में गा-गा कर कहा करते थे जो उत्साही शिष्यों वा खोजियों की ओर से किये जाते थे इसी कारण उनकी रचनाओं को 'बानी' वा बचन का नाम दिया जाता है। इसमें संदेह नहीं कि उनमें भरे हुए भाव गंभीर मनन का परिणाम हुआ करते थे किन्तु उनके माध्यम के सम्बन्ध में हम ऐसा नहीं कह सकते। उनमें व्यक्त कला 'कलाहीन' होती थी। साधारणतः उन्होंने अपनी रचना को कोई कृत्रिम अलंकार प्रदान करना नहीं चाहा । साहित्यिक कौशल उन्हें पसन्द नहीं था। यमक एवं श्लेष के प्रयोग उन्होंने जान बूझ कर अवश्य किये हैं और उनके द्वारा उन्होंने अपने उपदेशों में कुछ चमत्कार भी ग्रहण किया है, फिर भी उन्होंने अपनी रचनाओं को किन्हीं अन्य अलंकारों से सुसजित करने की चेष्टा नहीं की चाहे उन सब के प्रयोग कहीं न कहीं ऐसी रचनाओं में भले ही आ गये हों। उन्हें इनकी कोई आवश्यकता न थी, क्योंकि वे उस अलौकिक प्रभाव " +-उदाहरण के लिए कबीर कहते हैं कि "वही सुरतान (सुलतान) है जो दो श्वासों ( दोनों सुरों) को तानता (अभ्यास करता) है' (सो सुरतान जो दोइ सुरताने-क० ग्रं० पृ० २००) अथवा "झूठे ( कलमा) को पढ़कर सच्चे ( जीव) को मारनेवाला काजी (सत्कार्य करनेवाला ) अकाज (बुरा कर्म) कर बैठता है" ( साँचे मारे झूठ पढ़ि काजी करें अकाज-वही पृ० ४२) अथवा "जब यह मन उस मन को (उन्मन का ) जान लेता है तब मनुष्य रूप के परे पहुँच जाता है" (जब थै इनमन उनमन जाना तब रूप न रेष तहाँ ले जाना-वही पृ० १५८ अथवा जैसा मलूकदास ने कहा है “वही पीर ( गुरु ) है जो दूसरों की पीर ( दु:ख ) को समझता है" ( मलूक सोई पीर है जो जाने पर पीर संत बानी संग्रह भा० १ पृ० ६६ ) तुलसी साहब को इस प्रकार का प्रयोग करना बहुत पसंद है। १
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