हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय और दूसरी धार उनकी वे प्रतीकात्मक कल्पना हैं जो या तो साधारण जीवन से ली गई होने के कारण किसी प्राचीन युग की भावपूर्ण मधुर स्मृतियों को जाग्रत करती हैं अथवा ऐसी होती हैं जो काव्य के परम्परागत प्रयोगों में से पाये होने के कारण कई पीढ़ियों से दुहराई गई रहती हैं जिसके कारण उनका मनोमोहक प्रभाव सबके हृदय- क्षेत्र पर अनायास पड़ जाता है और उनके न जानने पर भी वे उनके मानसिक व्यापारों का अंग बनकर उन्हें चोट पहुँचाये बिना नहीं रहतीं। पहली धार जहाँ ऐसी कविता को प्रवाह प्रदान करती है वहाँ दूसरी उसे प्रभाव से युक्त कर देती है। पहले के उदाहरण में दादू का वह भावपूर्ण कथन दिया जा सकता है जिसे उन्होंने अपने उक्त प्रेम-भरे गीतों के सम्बन्ध में किया है और जो निर्गुण काव्य के विषय में भी लागू हो सकता है । उनका कहना है कि "अपने प्रेमपात्र से मिलने की तीव्र अभिलाषा जाग्रत होने पर मेरे भीतर से रात-दिन गीत अपने श्राप निकल पड़ते हैं और मैं अपनी पीर को गानेवाले पक्षी की भाँति व्यक्त करने लगता हूँ।" यह श्राप से श्राप हो जाने की प्रवृत्ति ही-यह दुखारहित हो जाने की स्थिति, जो बिना इच्छा के वा वस्तुतः बिना दुःखरहित हुए भी प्राप्त हो जाती है-सभी प्रकार की सत्कविता के लिए प्रेरक शक्ति बना करती है। निर्गुण काव्य में वह सावधानी नहीं दीखती जो किसी भी लिखित रचना के लिए आवश्यक है, इसमें असावधानी से की जानेवाली बात- चीत का निर्वाध प्रवाह रहता है और उसी प्रकार उसकी सभी त्रुटियाँ भी रहा करती हैं । ऐसी कविता सचमुच बातचीत के ही रूप में होती ®-ऐसी प्रीति प्रेम की लाग, ज्यू पंषी पीव सुणावै रे । त्यूं मन मेरा रहै निस वासुरि, कोइ पीवकू आणि मिलावे रे ।। बानी, पृ० ४१७ ।
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