षष्ठ अध्याय ३४५ । बानियों का साधन स्वीकार कर, अपनी स्वराज्य' नामक रचना प्रस्तुत की है, जिसमें उन्होंने यह दिखलाने की चेष्टा की है कि राजनीतिक स्वराज की प्राप्ति आध्यात्मिक स्वधाज अर्थात् शरीर के ऊपर प्रात्मा के अधिकार द्वारा ही संभव हो सकतो है। हाँ, संतों से, उनके संत रहते हुए ही, यह अाशा नहीं की जा सकती कि वे नाट्यशास्त्र की दृष्टि से कोई उत्तम नाटक लिखने में सफल हो सकेंगे प्रत्येक कविता में दो बातें आवश्यक हैं एक हृदय की सचाई और दूसरी कल्पना। आध्यात्मिक कविता पर इस दृष्टि से विचार करने पर जान पड़ेगा कि वास्तविक सौंदर्य वही है जिसे कवि २. निर्गुण ने अपने जीवन में स्वतंत्र अनुभव किया है और जिसे वह सर्वसाधारण-द्वारा अनुभूत क्षणस्थायी सौंदर्य के काव्यत्व आधार पर व्यक्त किया करता है। केवल इसी रूप में वह उन्हें प्रेरित कर सकता है कि वे अपने स्तर से ऊपर उठे। प्राध्यात्मिक कविता क्या वस्तुतः सभी कविताएँ दुधारी तलवारें हुआ करती हैं । और उनकी बनावट ऐसी होती है कि वे दूसरों को तभी काट पाती हैं जब पहले अपने हथियानेवाले को ही टुकड़े टुकड़े किये हों, और इसी कारण, जिन पर प्रहार किया जाता है वे उनसे अपने को बचा नहीं पाते । काव्य का काव्यत्व इसी में है कि वह अत- जीवन को व्यक्त करे । जिसका भाव जीवन में अनुभूत नहीं वह कविता कविता नहीं हो सकती। परिश्रमपूर्वकं प्रस्तुत की गई रचना कविता का बनावटी प्रतिरूप हो सकती है, किंतु उसे कान्य नहीं कह सकते जीवन में जितनी अधिक गंभीरता होगी उतना ही सरल व स्वच्छ उसका व्यक्तीकरण भी होगा। और उसी के अनुसार उसे सच्चा काव्य भी 1 निर्गणो संतों का वह अनुभव जो उनकी सत्ता के अंतर्गत श्रोत- प्रोत है और जो उनके भावों के निम्न स्तर तक को भी अनुप्राणित करता रहता है ऐसी धार है जो उक्त हथियानेवाले पर वार करती है
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