. n हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय साखियों का संग्रह 'अंगों' वा अध्यायों के अनुसार किया गया रहता है और इनके विषय-गुरु, सुमिरन; दीनता, परचा (अनुभूति) जर्णा ( स्थिरीकरण ), लौ ( जय ), पतिव्रता, चितावनी, साच, सबद, सूरातन ( शूरता), दया, निंदा, हैरान ( अर्थात् अपने आध्यात्मिक अनुभव का वर्णन न कर सकने की विवशता ) इत्यादि हुओं करते हैं। (इन अध्यायों के विषय प्रस्तुत ग्रंथ के अन्तर्गत, अपने-अपने उचित स्थानों पर आ गये हैं )। किंतु सबदों का संग्रह विषयों के अनुसार न हो कर उन रागों के आधार पर किया गया रहता है (जैसे रामकली, गौड़ी, धनासरी, बसंत श्रादि) जिनमें उनकी रचना हुई रहती है। हिंदी, उस चौपाई लिखने की लोकप्रिय शैली के लिए कबीर की ऋणी है जिसमें दोहे गुंफित रहते हैं। और जो तुलसीदास की रचना नामचरित मानस, तथा मलिकमुहम्मद जायसी की 'पद्मावत' में अपनायी गई है । उनको 'रमैनी' नाम की रचनाएँ इसी शैली में लिखी गई हैं । अपभ्रंश भाषा को रचनाओं में हमें यह शैली धट्टा ( चौपाई ) तथा दोहरा के प्रयोगों में अवश्य दीख पड़ती है, किन्तु हिन्दी में यह सर्वप्रथम, नियमित रूप से, कबीर की रचनाओं में हो मिलती है । रमैनी में कई पद होते हैं । प्रत्येक पद का प्रारम्भ एवं अंत एक-एक दोहे से होता है और बीच में कई एक चौपाइयाँ रहा करती हैं । पदों की संख्या के ही अनुसार रमैनी कई प्रकार की होती है जैसे द्विपदी, षट्पदी , सप्तपदी, अष्ठपदी, इत्यादि । विषय की दृष्टि से रमैनी में कोई न कोई दार्शनिक विवेचन रहा करता है जो बहुत कुछ दूर तक चलता है । फिर भी ऐसी बात नहीं कि, कबीर ने अनेक प्रकार के छन्दों का प्रोविष्कार किया था । उन्होंने परंपरागत छन्दों का ही प्रयोग किया। बहुत लोग इसमें विश्वास करते हैं, किंतु इसके लिए कोई आधार नहीं है इन दिनों दयालबाग स्थित राधास्वामी सत्संग के प्रधान 'साहिबजी' ने, निर्गुणियों की साखी, सबद व रमैनो लिखने की साधारण परिपाटी का परित्याग कर तथा मतप्रचार के लिए नाटक को अधिक उपयुक
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