षष्ठ अध्याय रूपकों का आश्रय मिल जाता है। परन्तु इस सांकेतिक भाषा को सम- झने के पहले कुछ न कुछ सीखने की भी आवश्यकता पड़ती है। ऐसा न होने पर प्रतीकों का सच्चा मर्म समझने में भूल हो जाया करती है। जिस कारण प्रतीकवाद प्रथार्थवाद में परिणत हो जाता है और उसके फिर वैसे अनेक दोष आने लगते हैं जैसे हमें कुछ सद्भावपूर्ण वैष्णव संप्रदायों में भी दीख रहे हैं । कबीर ने इसीलिए उपदेश किया है कि सांकेतिक भाषा को जो समझ न सके उससे बातचीत भी न करो।x साधारण काव्य के लिए भी ऐसी शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु निगुणी कवि को योग्यता का मूल्यांकन करने के पहल हमें एक अन्य बात पर भी विचार कर लेना चाहिए । वह यह है कि ये लोग प्रधानतः कवि नहीं थे। काव्य का कलात्मक स्त्रजन उनका निश्चित उद्देश्य न था। ऐसे कवियों से उन्हें वृणा थी जो काव्यरचना को ही अपना कर्त्तव्य माना करते हैं। कबीर ऐसे लोगों को अवसरवादी कहते हैं । * इन्हें किसी सत्य की उपलब्धि नहीं होती। कवि लोग कविता करते हैं और मर जाते हैं । निर्गुणियों के यहाँ 'काव्य काव्य के लिए' का कोई भी मूल्य नहीं। उनके लिए कविता एक उद्देश्य का साधनमात्र है। वे सत्य के प्रचारक थे और कविता को उन्होंने सत्य के प्रचार का एक प्रभावपूर्ण साधन मान रखा था। वे केवल थोड़े से शिक्षितों के लिए ही नहीं कहते थे; उनका लक्ष्य उन सर्वसाधारण के हृदयों पर अधिकार करना था जो जनता के प्रधान अंग थे। ये उन तक स्थानीय बोलियों के ही सहारे पहुँच सकते थे । संस्कृत और प्राकृत जो धर्मग्रंथों तथा काव्य के लिए भी परिष्कृत भाषाए समझी जाती थीं उनके सामने x-'संतबानी संग्रह' भा० १, पृ० ४५ ।
- -कविजन जोगि जटाधर चले अपनी औसर सारि।
-कवि कवीनैं कविता मूये । 'कबीर ग्रंथावली', पद ३१७ पृ० १६५ ।