( १५ ) सहज-साधना के समर्थक थे और मूर्ति पूजा अवतारवाद आदि में विश्वास : न रखते हुए, ममियों की प्रेम-पद्धति का अनुसरण करते थे । ३-इसी प्रकार इसके तीसरे अध्याय में इन संतों की साप्रदायिक मान्यताओं के स्पष्टीकरए की चेष्टा की गई है। इसके अंतर्गत इनके उस प्रत्यावर्तन की साधना का वर्णन किया गया है जो आत्मा को उसके अपने मूल स्रोत की ओर पुन: लौटने में सहायता प्रदान करती है। उस मध्यममार्ग का निर्देश किया गया है जिसे संत लोग निवृत्ति एवं प्रवृत्ति मार्गों के बीच का मान कर उसका अनुसरण करते हैं और फिर उस आध्यात्मिक वातावरण की भी चर्चा की गई है जिसके प्रभाव में रहकर उक्त प्रकार की साधनाओं में सफलता प्राप्त की जा सकती है। वातावरण के अंगों में सबसे अधिक प्रधानता सत्संग को दी जाती है और उसके लिए भी सच्चे संत वा साधु ही अपेक्षित हैं । डा० बड़थ्वाल ने इसके अनन्तर उस सतगुरु की भी व्याख्या की है जो उक्त आध्यात्मिक साधना के लिए सबसे आवश्यक हुआ करता है और तत्पश्चात् उसके द्वारा बतलाये गये नामस्मरए की साधना के महत्व की ओर संकेत करते हुए उसे भक्तियोग का ही एक अंग स्वीकार किया है । संतों की सर्वप्रधान साधना शब्दयोग व 'सुरति शब्दयोग' का वर्णन फिर पूरे विवरण के साथ करने का प्रयत्न किया गया है और इसके अनंतर उन दो प्रकार के लक्ष्यों की भी चर्चा कर दी गई है जिन्हें संत लोग अपनी सारी चेष्टाओं का अंतिम उद्देश्य माना करते हैं । डा० बड़थ्वाल ने इस अध्याय के अंत में यह भी बतला दिया है कि संतों की उक्त आध्यात्मिक साधना के कारए समाज की उपेक्षा नहीं हुआ करती, प्रत्युत उसमें उसके कल्याण का भी ध्येय सदा बना रहता है। पुस्तक का यह अध्याय सबमें वड़ा है और इसमें भी शब्दयोग वाला अंश अधिक विस्तृत व महत्वपूर्ण है। ४-पुस्तक के चौथे अध्याय में डा० बड़थ्वाल ने कुछ ऐसे
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४२
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