षष्ठ अध्याय ३३७. रहा उसकी व्यंजना शक्ति है क्योंकि शब्द का अर्थ इस प्रकार अपने से भिन्न किसी अन्य अभिप्राय का द्योतक बन जाता है। शब्दों का वास्तविक मर्म उनके परे करता है, किन्तु फिर भी वह स्पष्ट रूप में लक्षित होता रहता है रस' के सम्बन्ध में भी सबसे बड़ी बात यही है कि यह स्पष्ट समझ में न आकर केवल व्यंजितमात्र हुआ करता है। इसी प्रकार उस अनिर्वचनीय आध्यात्मिक अनुभव को भी, जिसे कबीर आदि संतों ने वेदांतियों की भाँति गूंगे का स्वाद बतलाया है, केवल व्यर्जित ही किया जा सकता है। गूगा मनुष्य केवल संकेतमात्र कर सकता है ! आध्यात्मिक अनुभूति को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति कबीर के शब्दों में "उस अगम्य, असीम एवं अनुपम तत्व को देखता है, किन्तु प्रयत्न करने पर भी अपने उस अनुभव को प्रकट नहीं कर सकता । मिठाई खा चुके हुए गूंगे व्यक्ति की भाँति वह मन ही मन प्रसन्न होता है। और संकेतमात्र किया करता है ।"* दादू ने भी कहा है “कितने ही पारखी प्रयत्न करके थक गये, किन्तु उसका मूल्य निर्धारित नहीं कर सके, गूंगे के गुड़ का स्वाद पाकर उसे प्रकट करने में सभी हैरान हैं।" निर्गुण संभ्रदाय के संत कवि इसी. सांकेतिक भाषा में कथन किया करते हैं। प्राध्यात्मिक क्षेत्र में पदार्पण करनेवाले सभी कवियों को सांकेतिक भाषा की ही शरण लेनी पड़ती है। हमारे युग के दो प्रधान कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा 'यीट्स' भी इसी भाषा का प्रयोग करते हैं। किसी मरणासन्न महिला का वर्णन करते हुए 'यीट्स' कहते हैं कि
- -अविगत अकल अनूपम देख्या कहता कह्या न जाई ।
सैन करै मनहीं मन रहसे गूगे जानि मिठाई ।। 'कबीर ग्रंथावली', पृ० ६० पद ६ । -केते पारिख पचि मुए कीमति कही न जाइ । दादू सब हैरान हैं गोंगे का गुड़ खाइ ।। दाढू बानी,