। ३३४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय स्पष्ट हो जाता है और यह विदित हो जाता है कि उसका तात्पर्य कोई संकीर्ण सांप्रदायिक रूप कभी नहीं था। किसी सीमित समाज के सदस्य होने की जगह निर्गुणी अपना सम्बन्ध सभी के साथ मानते थे और उन्हें अपना समझते थे । दूसरों का उनके दावे,का खंडन करना उनकी उक्त स्थिति में कोई अंतर नहीं लाता । वे सारे विश्व में अपने को विलीन कर देने का दम भरते हैं और इस जगत में आत्मविस्तार की भावना लेकर चलते हैं । जब एक निर्गुणी कहता कि मैं न तो हिंदू हूँ और न मुस्जिम हो हूँ तो उसका अभिप्राय यह रहता है कि उन दोनों में से एक न होने के ही कारण, वह एक प्रकार से दोनों है क्योंकि वह दोनों के हो धर्मसंबन्धी दुराग्रह से मुक्त है । कालांतर में, जब भारत में ईसाई धर्म का प्रवेश हुआ तो, निर्गुणपंथ ने दोनों के ही अनुयायियों का स्वागत किया । पन्ना के प्राणनाथ ने जो धामी संप्रदाय के प्रवर्तक थे, मुसलमानों, हिंदुओं व ईसाइयों को एकता की स्पष्ट शब्दां में घोषणा को । निर्गुणियों के मतानुसार मानव समाज को धर्म के नाम पर भिन्नः भिन्न वर्गों में विभाजित करना असत्य पर आश्रित है। उसका अपना धर्म सभी प्रकार को वर्ग-भावना से रहित है, उसमें सच्चे धर्म के सभी मुख्य अंश निहित रहते हैं और, धार्मिक दुराग्रह को किसी रूप में न अपनाने किसी भी प्रकार के पार्थक्य की भावना को प्रश्रय न देने तथा जीवन के तुद्रातिशुद्र अश को भी अछता न छोड़नेवालो अपनी विशेषता के कारण, उसका प्रभाव सदा व्यापक व सार्वभौम हुआ करता है। सुरति काढ़ि पर साधे कोई, तुम कढ़ाव विधि हलवे जोई। जागी मानसरावर राखा, बावे अम्मर सर तेहि भाखा । जो पंजाब अमरसर गाया, सो बावे नहीं बताया । इक बड़ डंड बाँस. को पूजा, देखो जड़ संग लगे अबूझा। घट रामायण, पृ० ३५२,३५३,३६१ व ३६३ ।
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