पंचम अध्याय ३२१ लगता है। इस प्रकार ऐसे महापुरुष के प्रयत्न जो ईश्वर के पुत्रों के दोष. पूर्ण तर्क को वस्तुनः समझता है और जो अपने प्रति प्रदर्शित उनकी भक्ति के बधन को (जिसका असली उद्देश्य उन्हें पृथक् पृथक् न करके भ्रातृभाव के एक सूत्र में ग्रथित कर देने का है) उनके भेदभावों को दूर करने में ही लगाता है, अंत में एक वैसे ही अन्य यंत्र को जन्म दे देता है जैसे पहले से चले आ रहे थे। उनके साथ-साथ उनके अंधविश्वास भो चले आये जिन्हें वे धर्म नाम देकर अपनाते रहे। वे उन बाहरी प्रभावों से भी अपने को बचा सके जो निर्गुण मत के विरुद्ध पड़ते थे और मानव शरीर के मलों-द्वारा तैयार किये गये प्रेम पदार्थ के पान करने की विधि का कारण भी इसी बात में ढूंढा जा सकता है। इसके सिवाय हमें एक और बात स्मरण रखनी चाहिए । प्रत्येक बात का सम्बन्ध जिससे हम किसी मानव समाज के हृदय को तह को प्रभावित करना चाहते हैं उन भावनाओं के साथ भी रहा करता है जिन्हें जनता युगों से अपनाये चली आती रहती है। वर्तमान प्रचलित बातों के विपरीत जाने के लिए यह आवश्यक होता है कि हम इस बात को भी स्पष्ट करते चलें कि जो कुछ विरोध किया जा रहा है वह वस्तुतः विरोध नहीं, वरन् वस्तुस्थिति को सच्चे ढंग से समझने का प्रयत्न मात्र है। इस प्रकार पुराने प्रतीकों को नया महत्व प्रदान करना पड़ता है और पुरानी बोतलों में नवीन सुरा भरनी पड़ती है। हिंदुओं के शब्दप्रमाण वा श्रुति की प्रामाणिकता का यही रहस्य है। इसीलिए प्रत्येक हिंदू दार्शनिक नवीन सिद्धातों वा पद्धतियों का निरूपण करते समय भी, एक भाष्यकार के ही विनीत भाव को धारण कर लेता है और उनके लिए श्रुति के प्रामाण्य का दावा करना ही उसके मत को स्थायित्व भी प्रदान करता है। इसी प्रकार यद्यपि सूफ़ीमत इस्लाम से नितांत भिन्न है, फिर भी उसके सिद्धांतों का स्थायी प्रभाव इस्लामी विचारधारा पर पड़ा है और
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