हिन्दी काव्य में निKण संप्रदाय करते हैं कि यदि पथिक विचारपूर्वक न चला करे और चिपश्च होकर जंगल में जा पड़े तो, मार्ग को भला क्या दोष दिया जा सकता है ?* धर्मों के भीतर सांप्रदायिकता के कटु भावों के प्रविष्ट होने के दो कारण हैं। प्रथम यह है कि धार्मिक संस्था साधारणतः सत्य के. पक्ष विशेष को हो अपनाया करती हैं और उतने भर को ही पूर्ण सत्या मान लेती हैं। इसी कारण वे एक दूसरे के मतों का विरोध करने लगती हैं। इसके लिए वह दृष्टांत उद्धृत किया जा सकता है जो निर्गुणियों ने बौद्ध ग्रंथों से लिया है। उसके अनुसार उक्त संस्थाएँ उन अंधों के समान हैं जो अपने हाथों से किसको हाथी के केवल भिन्न-भिन्न अंगों को ही स्पर्श कर उसके पूरे शरीर के विषय में. कल्पना कर लें।। जिस अंधे को उसके कान स्पर्श करने को मिले. उसने उसका रूप किसी सूप के समान समझा, जिसे उसके पैर मिले उसने उसे खंभे के समान माना, जिसने उसके शरीर को स्पर्श किया उसने उसे दीवार जाना और जिसके हाथ उसकी सूड पर पड़ गये उसने उसे सर्पवत् अनुमान किया तथा उनमें से प्रत्येक अपने कथन की सत्यता को सिद्ध करने के लिए लड़ने पर उतारू हो गया। दूसरा कारण यह है कि, उक्त प्रांशिक सत्य के भी ऐसी लाक्षणिक भाषा में व्यक्त किये जाने के कारण, जिसे उन धर्मों के अनुयायी शब्दशः मान लिया करते हैं, उसका वास्त- विक रहस्य उनकी आँखों से पूर्णत: अोझल रहा करता है और वे केवल उस कर्मकांड के ही पीछे लड़ने लगते हैं जो वस्तुत: उस रूपकता का भाव स्वरूप रहता है और जिसमें उसका कोई संकेतमात्र भी नहीं रह जाता।
- -राह बिचारी क्या करे, पंथि न चलै विचारि ।
प्रापम मारग छौंडिके फिरै उजारि उजारि ।। 'बीजक' 1-अाँधरों ने हाथि देखि झगरो मचायो है। --'सुदर विलास' पृ० १६०।