भूमि का पता लगाया और उनके सांप्रदायिक सिद्धान्तों के स्वरूप का भी दिग्दर्शन कराया। इसके सिवाय इन संतों की मुख्य देन की ओर' संकेत करते हुए उन्होंने इनकी बानियों में प्रकट होनेवाली वर्शनशैली का भी परिचय कराया तथा उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर इनकी जीवनी पर भी प्रकाश डाला डा० बड़थ्वाल को उपर्युक्त थीसिस का विषय इन सारी बातों से सम्बन्ध रखता था। निबंध को पुस्तक का आकार देते हुए उसे उन्होंने ६ भिन्न-भिन्न अध्यायों में विभक्त कर दिया था जिनका विवरण इस प्रकार दिया जा सकता है- १-उसके प्रथम अध्याय के अंतर्गत उन्होंने उन विभिन्न प्रवृतियों का परिचय दिया है जो संतमत के प्रमुख प्रवर्तक कबीर के समय वा उनके भी कुछ पहले से काम करती आ रही थीं। भारत की अंतरात्मा सदा से आध्यात्मिक भावनाओं की ओर ही प्रवृत्त रहती आई है और उसकी भावधारा शताब्दियों से निरंतर अबाधित रूप से प्रवाहित होती हुई समयानुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती रही है । तदनुसार भारत पर इस्लाम का आक्रमण हो जाने के अनंतर पंद्रहवीं शताब्दी में जो रूप इस धारा ने ग्रहण किया वह निर्गुण संत-संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। मुस्लिम विजेता पहले लूटपाट करके चले जाते थे और सिवाय कतिपय ध्वंसावशेषों के उनके आगमन का कोई अन्य चिह्न नहीं रह जाता था। परन्तु आगे चल कर उन्होंने भारतीय जनता के ऊपर अपने 'मजहब' को भी लादना प्रारम्भ कर दिया । देश में उस समय वर्ण-व्यवस्था जैसी सामाजिक विषमताएँ वर्तमान थीं और उनका प्रभाव दूर करने के लिए भक्ति मार्ग का आंदोलन अधिकाधिक सचेष्ट होता आ रहा था। उसके वैष्णवै-संप्रदाय तथा इस्लाम के सूफ़ी संप्रदाय ने इस ओर बहुत कुछ काम किया । परन्तु उन दोनों का भी कार्य प्रायः अधूरा था। कबीर ने इसी समय स्वा० रामानंद से प्रेरणा पाकर अपने उपदेश देने प्रारम्भ किये और हिंदुओं एवं मुसलमानों की त्रुटियों
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