३१२ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय विधियों में से एक है और इसका पता कदाचित्, प्राचीन वैदिक कर्मकाण्ड में भी मिल सकता है ।" और 'शब्द' का भो "अग्रवर्ती 'वाक्य' के सिद्धांत एवं वचन, विचार तथा सत की एकरूपता में पाया जा सकता है। वास्तव में जैसा बार्थ साहब तथा डा. कीथ ने स्वीकार किया है, "भक्ति का विकास भारतीय क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से हुआ था। | फिर भी इस प्रश्न पर विचार करते समय पता चलेगा कि भक्ति वाद पर ईसाई प्रभाव पड़ने के विषय में दो मत प्रचलित हैं। एक अनुसार दक्षिण भारत में बस गये हुए ईसाइयों के साथ 'उत्साही' ब्राह्मणों का संघर्ष चला और इस प्रकार उन वैष्णव संप्रदायों की सृष्टि हो गई जिनमें उनके लोकप्रिय देवता कृष्ण को कुछ अधिक भव्य रूप प्रदान करने के लिए महान् उत्सर्ग के सिद्धांत का उपयोग करना पड़ा। दूसरे मत के अनुसार ईसाई प्रभाव को प्रात्मसात् करने के लिए 'उत्साही' नारद मुनि का पाश्चात्य देशों में यात्रा करना बतलाया जाता है । इस दूसरी कल्पना का आधार नारद मुनि की उस यात्रा में मिल सकता है जो उन्होंने, महाभारत के बारहवें पर्व में दिये गये प्रसंगानुसार क्षीरसागर के श्वेतद्वीप में की थी। इस दूसरे मत के अनुसार कृष्ण को क्राइस्ट वा ईसामसीह का प्रतिरूप मानना चाहिए। इसके अनुसार भक्ति मत के अंतर्गत जो कुछ भी अच्छी बातें हैं उनका
- -वही, पृ० ४६३ ।
-वही, पृ० ४६२ ।
- -रे० के० एम० बनर्जी 'डायलाग्स आन हिंदू फिलासफ़ी' पृ०
५१७-८। x-१२ वां पर्व (श्लो० १२७७६-१२७८२ )।