( १२ ) पूरी सावधानी के साथ लिखा करते थे, उनके बड़ से बड़े ग्रंथों से लेकर छोटे से छोटे निबन्धों तक की रचना के पीछे उनके गहरे अध्ययन व अनुशीलन की छाप लगी हुई है। वे किसी भी विषय पर सदा स्वतन्त्र रूप से विचार करने की चेष्टा करते थे, उस पर नया प्रकाश डालना अपना लक्ष्य बना लेते थे और, उसे लेकर लिखते समय अपने वाक्यों में युक्तियों के साथ-साथ रोचकता व सजीवता भी भर देते थे। कहते हैं कि अपने लेखों की अनेक पंक्तियों को उन्होंने, प्रकाशित करने के पूर्व, 'बीस-बीस-तीस-तीस' बार तक सुधारा होगा । उनका 'सुरति-निरति' नामक निबन्ध जो उपर्युक्त 'योगप्रवाह' पुस्तक के केवल ग्यारह पृष्ठों में ही छपा है "उनके ग्यारह वर्षों के परिश्रम का फल है" | किसी विषय की धारणा बना लेना, उसे सर्वप्रथम थोड़े में ही व्यक्त करना और पीछे उसे समुचित विस्तार देकर, सुव्यवस्थित रूप देना उनकी प्रमुख विशेषता के अंग थे । वे एक शुद्ध साहित्यिक जीव थ और उनकी अन्तःप्रेरणा, उनकी सच्ची लगन का उपयोग सदा स्थायी कार्यों में ही किया करती थी। उन्हें अपने पांडित्य का अभिमान न था फिर भी उनकी कृतियों में उनके आत्म-विश्वास, दृढ़ता एवं निर्भयता के उदाहरए सर्वत्र लक्षित होते हैं। साहित्य-सेवा ने उनके लिए एक पूरे व्यसन का रूप धारण कर लिया था और उनकी एकांत- निष्ठा व अनवरत परिश्रम, उनकी मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों में क्रमशः विकार एवं ह्रास उत्पन्न करते हुए, उन्हें असामयिक मृत्यु की ओर बरबस खींच ले गये। ३. दि निगुण स्कूल अ6 हिंदो पोइट्री डा० बड़थ्वाल ने हिंदी के संतकवियों की बानियों का अध्ययन कर उनकी वाह्य विभिन्नताओं में समन्वय व समानता के आधार ढूंढ निकालने के प्रयत्न किये । उन्होंन इनके उपदेशों की दार्शनिक पृष्ठ-
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३९
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