३०४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय द्वारा, कालक्रमानुसार धीरे-धीरे, स्वयं निर्मित हुश्रा करता है। निर्गुण मत ऐसे ही मिश्रित संप्रदाय का परिणाम स्वरूप है और इसी दृष्टि से यह एक मिश्रित सदाय कहा भी जा सकता है। निर्गुण पंथ के निर्माण में परिणत होनेवाली क्रिया केवल कुछ वर्षों ही तक नहीं चली थी और न इसका अंत कुछ लोगों के जीवन-काल की अवधि में ही हुश्रा था, इसका स्वरूप अनेक युगों से निरंतर चले आनेवाली किसी एक विशेष प्रक्रिया-द्वारा निर्मित हुअा था। इस प्रक्रिया का प्रारंभ एक श्रोर जहाँ ढाई सहस्त्र वर्षों से पहले, अर्थात् ईसा के पूर्व चौथी शताब्दी के पहले एकांतिक धर्म वा एकनिष्ठ भक्ति में हुआ था, वहाँ दूसरी ओर उस बौद्ध धर्म के अंतर्गत भी कहा जा सकता है जो उससे किसी प्रकार कम प्राचीन नहीं था। इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में मैंने स्वामी रामानन्द के समय तक एकातिक धर्म के विकास की चर्चा की है। परन्तु इसी बीच में इस शुद्ध व सरल मत में भी अनेक प्रकार के परिवर्तन होने लगे थे । उपनिषदों के उपदेश इसमें सम्मिलित होते जा रहे थे और श्रीमद्भागवत के समय तक आते-आते जो प्रायः गुप्त काल में रखा जाता है, यह एक ऐसे अत्यंत जटिल अद्वैतवाद का दार्शनिक रूप ग्रहण कर लेता है जिसमें ईश्वरवाद को भावना का भी परित्याग नहीं होता । परन्तु जब औपनिषदिक सिद्धान्तों का अर्थ शङ्कराचार्य-द्वारा एक नवीन ढंग से लगाया गया और जिसे ईश्वरवाद के प्रति उपेक्षा का भाव सा प्रकट होने के कारण प्रच्छन्न बौद्ध धर्म तक कहा गया तो शङ्कर के केवलाद्वैत के विरुद्ध वैष्णव-संप्रदाय अपने विशिष्टाद्वैत, भेदा-भेद एवं दार्शनिकवादों को लेकर उठ खड़ा हुआ। फिर भी शङ्कराचार्य के मत का प्रभाव सर्वसाधारण के विचारों पर पड़े बिना नहीं रह सका और, अन्त में, इसका प्रवेश वैष्णव-संम्प्रदाय में भी हो गया । महाराष्ट्र प्रांत के अन्तर्गत मुकुंदराज ने अपनी पुस्तक "विवेक सागर" की रचना, बारहवीं शताब्दी ईस्वी में मराठी भाषा मे की और
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