चतुर्थ अध्याय ३०१ संतोष रहा करता है। वास्तव में वैभव के विचार से संतोष एवं उदारता दोनों एक ही संतुलित मनोवृति के दो पथ हैं। आर्थिक संकट के साथ संतोष और समृद्धि के साथ उदारता का भाव इस स्थिति के विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि इससे हो पूंजीवाद की दुष्टता और साम्यवाद की बर्बरता के भाव उत्पन्न हुए हैं । इस विषय में अधिक कहने की आवश्य- कता नहीं कि हमारी आधुनिक सभ्यता को जिस अनिष्ट की आशंका हो रही है उसका निवारण आध्यात्मिकता ही कर सकती है। जो कुछ पहले कहा जा चुका है उससे भली भांति सिद्ध है कि निर्गुण मत का भी लच्य यही है। निर्गुणियों के उपदेशों का अक्षरशः पालन सर्व साधारण द्वारा नहीं हो सकता परन्तु विचित्र वैषम्य की साधारण दैनिक जीवन-यापन करने- वाली विचित्र स्थिति में रह कर निर्गणी का श्रादर्श उसकी उस सहज बुद्धि पर अवश्य कल्याणकर प्रभाव डालेगा जो समाज के लिए भयावह है और उसके उस उग्र स्वभाव को निसर्गत: जाग्रत करेगा जिसके कारण उसके नागरिक एवं नैतिक महत्व की वृद्धि में प्रोत्साहन मिले।
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।