२९६ -हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय ईश्वरत्व का भान भी न रहा करे तो कोई भी आर्थिक समाज उन अयोग्य भिखमंगों का एक समूह बन जाता है जो सार्वजनिक दान पर श्राश्रित रह कर अनुपयोगी जीवन-यापन करते हैं और उनके द्वारा उच्छिन्न हो जाने का ही भय बना रहता है। जिस किसी का अपने ईश्वर में विश्वास रहता है वह जानता है कि जब वह ईश्वर पर आश्रित रहता है तो वह वस्तुतः अपने ऊपर ही भरोसा करता है। निर्गुण मत का भाग्यवाद किसी आलस्यमय जीवन का द्योतक नहीं। भिन्न बाहरो कर्ता की इच्छा पर किसी का पुरुष की भाँति निर्भर रहने की जगह वह वस्तुतः अपने कामों के लिए, वीरतापूर्वक अपना उत्तरदायित्व संभालता है, जो निर्दयी काल के हाथों से भी हटाया नहीं जा सकता । 'कर्म' जिसका शब्दार्थ कार्य होता है भाग्य का एक दूसरा नाम है, जो कुछ भी अपने ऊपर आ पड़े उसे साहस के साथ यह मानकर उठा लेना चाहिए कि वह अपने पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है । नानक ने कहा है कि जो जैसा बोता है वह वैसा काटता भी है। मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है किंतु अपने किये कर्म का परिणाम भी उसको भोगना पड़ता है। उसके कर्म सम्बन्धी नियम की अवहेलना स्वयं ईश्वर तक नहीं कर यद्यपि वह उसी की इच्छा है । इसलिए जो कुछ बदला नहीं जा सकता उसके लिए रोने की जगह किसी को इस बात का परम संतोष भी हो सकता है कि वह अन्ततः ईश्वर की ही इच्छापूर्ति कर रहा है और अपने उस भविष्य के लिए वह श्राशा के साथ कार्य भी कर सकता है जो सदा अपने हाथों की बात है यद्यपि ऐसा करते समय वह उन कुछ परिस्थितियों द्वारा बाधित भी होता रहेगा जो उसके पहले कर्मों का परिणाम स्वरूप हैं। , सकता, + जो जैसा करे सु तैसा पावे । आपि बीजि प्रापे खावे ।। ग्रंथ साहब, पृ० ३५७ ।
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