चतुर्थ अध्याय २६५ करता है। दादू सम्पूर्ण अविच्छिन्न जीवन की सेवा में ही अपने जीवन की पूर्ति समझते हैं और उस स्थान पर मरना चाहते हैं जहाँ उनका शरीर पशुओं व पक्षियों के लिए भोजन का काम दे दे और मलूकदास इस बात की प्रार्थना करते हैं कि सभी प्राणी सुखी कर दिये जायें और उनके दुःख मेरे सिर डाल दिये जायँ ।+. निर्गुणी का जीवन स्वभावत: उपयोगी होना चाहिए। कबीर मनुष्य को इस बात का परामर्श देते हैं कि उसे सड़क के उस कंकड़ के समान नम्र व विनीत बन जाना चाहिए जिसे प्रत्येक बटोही अपने पैरों रौंद दिया करता है। किंतु वह कंकड़ भी कभी किसी राही को कष्ट पहुँचा सकता है, इस- लिए उसे धरती पर की धूल बन जाना चाहिए। परंतु धूल किसी के शरीर व वस्त्र को धूमिल कर उसे कष्ट पहुँचा सकती है, इसलिए उसे पानी के समान होना चाहिए जो धूल को धोकर साफ़ करता है। परंतु पानी भी अपने समय समय पर गर्म व ठंढा होते रहने के कारण नापसंद किया जा सकता है। अतएव, हरिजन को स्वयं ईश्वर का ही रूप होना चाहिए। प्रेम के मार्ग में जो सत्य का अकेला शांतिपूर्ण मार्ग है कितना भी कष्ट झेलना पड़े वह अधिक नहीं होता। इसके लिए ऐसे धैर्य की आवश्यकता है जो पृथ्वी में पाया जाता है जिसके कारण वह कुचला जाना सहती है अथवा जो जंगल में रहा करता है और वह काटा तथा चीरा जाना तक सहन कर लेता है। फिर भी प्राध्यात्मिक नम्रता का अर्थ अपमान नहीं होता । ईश्वर पर भरोसा करो और अपनी अयोग्यता एवं पापीपन को उसके समक्ष स्वीकार करने के साथ-साथ यदि भीतर स्वाभाविक भलाई व + सं० बा० सं०, भाग १, पृ० ७८ व १०४ । कबीर ग्रन्थावली, पृ० ६५ ।
- वही, पृ० ६२ ।