चतुथ अध्याय २६३ परन्तु जब तक अहंकार है तब तक किसी की आँखें अपने पापों की ओर नहीं उठा करतीं । निर्गणियों तथा सभी भक्तों को यह धारणा रहती आई है कि पूर्णता की ऊँचाई तक पहुँचने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने को नीचातिनीच समझा करें। इनकी दशा का सार ब्राउनिंग की निम्नलिखित दो पंक्तियों द्वारा बड़े उपयुक्त शब्दों में दिया गया है "ऊपर की ओर देखने से पहले नीचे की ओर देखने से ही रहस्य के भीतर दृष्टि डाली जा सकती है।" इस कारण सभी प्रकार के गर्व का त्याग करना आवश्यक है "मैं" को पूर्णतः नष्ट करना ही पड़ेगा, इस प्रकार का अभिमान हो कि जो कुछ अपने आप करने की कल्पना कोई करता है उसका कर्ता “मैं" हूँ सभी प्रकार के प्राध्यात्मिक जीवन के लिए मृत्युस्वरूप हैं। यदि ईश्वर की इच्छा न हो तो मनुष्य जो वस्तुतः एक मिट्टी का खिलौना मात्र है, कर ही क्या सकता है ? इस विस्तृत ईश्वरीय सृष्टि का एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण भी होने के कारण उसे कुछ करने की शक्ति ही कहाँ है ? अथवा ईश्वरेच्छा से बाहर उसकी इच्छा ही क्या हो सकती है ? मनुष्य परमात्मा का एक साधन मात्र है, वह एक यंत्र है जिसके प्रयोग-द्वारा वह अपनी इच्छा की पूर्ति किया करता है। कबोर के नीचे लिखे शब्दों द्वारा यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है--"मैं राम का कुत्ता हूँ और उसकी रस्सी मेरे गले में पड़ी हुई है; वह जिधर खींचता है उसी ओर मैं जाता हूँ" और फिर “मैंने कुछ भी नहीं किया है और न मैं कुछ कर ही सकता था । जो कुछ भी किया जाता है उसे ईश्वर ही करता है और उसी के अनुसार कबीर + कबीर कूती राम की मुतियाँ मेरा नाउँ । गले राम की जेवड़ी जित खेंचे तित जाउँ । क० ग्रं॰, पृ० २० ।
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