.. चतुर्थ अध्याय २८४ बुराई हर नहीं सकेगी। दुष्टों के प्रति दया दिखलाई जाय तो दुष्टता उसके अंत:करण को ठेस पहुँचायेगी और वह पश्चात्ताप करने लगेगा। कबीर कहते हैं कि 'काँटा बोनेवाले के लिए भी तुम फूल ही लगाया करो ; तुम्हें उसके बदले में फूल मिलेगा और उसके लिए त्रिशूल बन जायेगा।"+ फिर, "दया में धर्म और लोभ में पाप रहा करता है तथा इसी प्रकार क्रोध में मृत्यु एवं क्षमा में वह स्वयं विद्यमान रहता है ।। निर्गुणी केवल मानव जीवन से ही प्रेम नहीं करता बल्कि प्राणि- मात्र का प्रेमी है और लिए वनस्पति जीवन भी अपवाद स्वरूप नहीं । कबीर ने कहा है कि "जैनियों को जोवन का महत्व ज्ञात नहीं; क्योंकि वे पत्तियाँ तोड़ कर उन्हें मंदिरों में चढ़ाया करते हैं " यह विश्वास कि सब कोई किसी भी योनि में जन्म धारण कर सकते हैं, सब किसी को एक वृहत भ्रातृ समाज में बाँधने का प्रेमसूत्रं बन जाता है। निर्गुणी केवल अहिंसा का ही सिद्धान्त स्वीकार नहीं करता वह अविरोध का भाव भी अपनाये रहता है। किसी को भी मनसा, वाचा व कर्मणा हानि न पहुँचनी चाहिए । मांस-भक्षण का उन्होंने स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है। मेकालिक का यह कथन कि नानक ने मांस भक्षण की अनुमति दी थी उस गुरु के उपदेशों द्वारा सिद्ध नहीं होता । यद्यपि + जो तोकों काँटा बुवै, ताहि बोइ तू फूल । तोकों फूल के फूल हैं, वाको हैं तिरसूल ।। वही, पृ० ४४ ॥ । जहाँ दया तहँ धर्म है, जहाँ लोभ तहँ पाप । जहाँ क्रोध तहँ काल है, जहाँ छिमा तहँ आप ॥ वही, पृ० ५०॥
- जैन जीव की सुधि नहिं जानै पाती तोडि देहुरे पार्ने ।
क० ग्रं॰, पृ० २४६ ।