. चतुर्थ अध्याय २८७ स्थायित्व प्रदान करना चाहा। उसकी प्रसिद्धि का बोज उस विचार में ही निहित रहा। ईश्वरीय साम्राज्य के स्थान पर अकबर ने अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहा । विभिन्नताओं को भी लेकर चलनेवाली सच्ची भीतरी एकता के बिना केवल विनिमय के सिद्धान्त पर ही आश्रित कोई चलता क्रम ठहर नहीं सकता। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि निर्गुणी कभी जाति वा राष्ट्र की दृष्टि से विचार नहीं करते थे बल्कि मानवता के ही शब्दों में सोचते थे। केवल इस बात से कि उनके सिद्धान्तों का भी सम्बन्ध कभी-कभी स्थानीय वा जातीय कामों में दीख पड़ता है, यह प्रमाणित नहीं होता कि उनकी धारणाएँ संकीर्ण थीं। केवल स्त्री जाति को ही इन संतों द्वारा हानि पहुँचतो है । सभी युगों व देशों के निवृत्तिमार्गियों का यह नियम रहा है कि वे स्त्री व धन की निंदा करते आये हैं और इस प्रकार वैराग्य की उस भावना को जाग्रत करते रहे हैं जो निर्गणियों को भी स्वीकार है । कबीर ने स्त्रियों को नरक का कुण्ड बतलाया है । पलटू को अस्सी वर्ष की भी स्त्री का विश्वास नहीं और यह बात खटकती है। दुःख की बात है कि स्त्रियों में इन लोगों ने केवल भोले भाव ही को देखा है, उनके आध्यात्मिक श्रादर्श की ओर से आँखें मूंद ली हैं जिसे उन्होंने उस शाश्वत प्रेमी की भार्याएँ बनकर स्वयं अपनाने का विचार किया है। इसमें संदेह नहीं कि स्त्रियों के केवल यौन भाव वाले अंश को हो उन्होंने ही गर्हित माना है, किंतु स्त्रियों में यही भाव सब कुछ नहीं है और न पुरुष ही इस भाव से रहित हैं। जैसा निर्गुणियों ने स्वयं माना है कि पुरुष भी स्त्री के लिए उसी प्रकार बन्धन स्वरूप हैं जिस प्रकार स्त्री पुरुष के लिए हो सकती है। फिर भी यह उल्लेखनीय है कि उन्हें स्त्रियों के व्यक्तित्व से कोई द्वेष न था क्योंकि उनके अनुसार वह भो पुरुष की ही भाँति ईश्वर की
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