वह बात २८४ 'हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय कृष्ण जैसे ज्ञानियों के लिए उचित समझते हैं, करम खंड को राम जैसे समाज के कर्मवीरों का स्थान मानते हैं जो पाप के सैन्यबल का विरोध किया करते हैं।* आत्मा को अपने कर्मों का भोग भोगने के लिए जन्म एवं मरण के चक्रों में भ्रमण करना पड़ता है। कहा जाता है कि विश्व में चौरासी लाख योनियाँ हैं और प्रत्येक व्यक्ति को इसमें से एक वा सभी में भ्रमण करना पड़ता है । उसका आगामी जीवन उन प्रवृत्तियों की योग्य- ताओं-द्वारा निर्धारित होता है, जिन्हें वह अपने वर्तमान जीवन में प्राप्त किया करता है । दाद ने कहा है कि "जीते जी जो अपना मन जहाँ पर रखता है, वहीं पर अपने मरने पर प्रवेश कर जाता है । मानी जाती है कि अपना उद्धार प्राप्त करने के लिए, मनुष्य अन्य प्राणियों से अधिक योग्य अधिकारी है। मानव शरीर को इसी कारण बहुत प्रशस्त कर्मों का पारितोषिक स्वरूप माना जाता है और उससे पूरा लाभ उठाना उचित है । जैसा बाबा लाल ने बतलाया है कि यद्यपि निर्गुणों का मत औरों से भिन्न है तो भी यह भिन्नता सामाजिक क्षेत्र के व्यापारों से सम्बन्ध नहीं रखती। जैसा उन्होंने स्वयं कहा है, व्यक्तियों की श्रद्धा व विश्वास है जो उससे प्रेम करते हैं, किन्तु भलाई करना सभी मतों के अनुयायियों के लिए सर्वोत्तम है।" 'मैं' एवं तू' की क्षुद्रता से ऊपर उठकर, निर्गुणी, सारे विश्व को एक में बँधा हुआ देखता है। लोगों की जीविका के चरित्र में कितना ही अंतर क्यों न हो वे सभी तत्वतः एक हैं । एकही प्रात्मा सभी में व्याप्त है। सभी कृत्रिम विभिन्नताएं अपने स्वभाव से ही गर्हित परमात्मा जन आध्यात्मिक भ्रातृभाव 1
- "जपुजी" (गुरु नानक ) ३५-३७ ।
+ जहँ मन राखे जीवता, मरता तिस घरि जाइ । दादू बासा प्राण का, जहँ पहली रह्या समाइ ।।
- "दि रिलीजस सेक्ट्स आफ हिन्दूज"
पृ० ३४६, विल्सन ।