चतुर्थ अध्याय २८३ नहीं और न पाप-पुण्य में हो है । फिर भी निर्गण मत' नैतिक नियमों को परिवर्तित कर देना नहीं चाहता, क्योंकि नौतक बल ही जीवन में सभी प्रकार की सफलता का आधार है। कबीर कहते हैं कि "शील के अन्तर्गत तीनों भुवनों के रत्न भरे पड़े हैं। * सापेक्षिक संसार में पाप-पुण्य केवल शब्द ही नहीं रह जाते । जब तक मनुष्य संसार में जीवित है उनका महत्व बना हुआ है और उनका अंतर भी समझा जाता है, क्योंकि वे ही मनुष्य की भावी का निर्माण करते हैं-कबीर कहते हैं कि कलिकाल में परिणाम शीघ्र ही मिला करता है । इसलिए बुराई किसी को नहीं करनी चाहिए। यदि तुम बाएं हाथ से अन्न बोप्रो और दाहिने हाथ से लोहा बोश्रो तो दोनों का फल उसी के अनुसार प्राप्त होगा। - पुण्य के द्वारा मनुष्य को स्वर्ग मिलता है और पाप उसे नर्क में ला गिराता है । नानक ने पाँच प्रकार के स्वर्गों का वर्णन किया है जो नीचे से ऊपर की ओर इस प्रकार हैं-धरमखंड, सरमखंड, ज्ञानखंड, करमखंड और सचरखंड इनमें से अंतिम में 'कर्ता' का निवास बताया गया है और इसी को कभी-कभी निर्वाण भी कहा गया है। नानक अन्य स्वर्गों के विषय में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा है, किन्तु जान पड़ता है कि वे धरमखंड को कर्मकाण्ड के समर्थक धर्मों का फल समझते हैं, सरम खंड को चैतन्य जैसे उन निम्न श्रेणी के रहस्यवादियों का स्थान मानते हैं जो भौतिक उल्लास में उन्मत्त हो जाया करते हैं । ज्ञानखंड --
- सीलवन्त सबसे बड़ा, सर्व रतन की खानि ।
तीन लोक की संपदा, रही सील में आनि ।। वही भाग १ पृ० ५। 1 कलीकाल ततकाल है , बुरा करो जनिकोय । अनबावै लोहा दाहिणे बवै सो लुणता होय ॥२ क० ग्रं० पृ० ५६ ।