. २८० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय परिणाम है और यह इस बात का स्मरण दिलाता है कि वह अब जीवित है। "जब मैंने आपा एवं पर की समानता का अनुभ। कर लिया तो कबीर कहते हैं कि हमने निर्वाण भी पा लिया ।* उस दशा में वह जीवन्मुक्त कहलाता है, क्योंकि उस दशा में मानव शरीर में रहता हुआ भी वह उस दृष्टि से जीवित नहीं कहला सकता जिस प्रकार हम साधारण मनुष्य कहे जाते हैं। वह उस अहंकार को मार चुका रहता है जो सारी वाह्य वस्तुओं को उत्पन्न करता है और बंधन का जाल भी फैला देता है और इस प्रकार पूर्ण रूप में श्रात्मा में ही निवास करता है। "अपनी स्वाभाविक मृत्यु के पहले जो मर जाता है वही अमर हो जाता है।" यह मृत्यु के पहले मरना और मरण कार्य के पूर्व हो अमरत्व का उपलब्ध कर लेना एक बड़ा सामाजिक महत्व रखता है। निर्गुणी का अपने सहजीवी प्राणियों के प्रति दया का भाव केवन एक सूखी, किन्तु पवित्र भावना तक ही सीमित नहीं रहता। इसके विपरोत यह उन लाभप्रद प्रयत्नों में परिणत भी होता है जो कष्ट व दुःख को दूर करने के लिए किये जाते हैं। यद्यपि इन द्युतिमान व्यक्तियों के शरीर दुर्बल व ऊपर से किसी भारी काम के लिए अनुपयुक्त होते हैं; फिर भी यह बात, कि उसने अपने निम्न श्रापे को सर्वशक्तिमान के साथ किती गंभीर कार्य के लिए जोड़ लिया है और इस प्रकार शक्ति के अज्ञात एवं अक्षय स्रोतों का द्वार खोल दिया है वह उन्हें मानव समाज के उत्थान के लिए असीम शक्ति के साथ काम करने की योग्यता प्रदान कर देती है। आपा पर सब एक समान । तब हम पाया पद निरवान ।। वही, पृ० १४४ ॥ प्रभुता . सब चहत हैं, प्रभु को चाहं न कोय । • सं० बा० सं०, भा० १ पृ० १६० । .
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