२७६ चतुर्थ अध्याय वस्तुत: एक ही स्रोत से उत्पन्न हुए हैं। चाहे दूसरे लोग अपनी ईश्वरी- यता का परिचय नहीं भी रखते हैं तो भी वे उनके प्रति घृणा के भाव नहीं दिखलाते । बल्कि इस बात के लिए यह एक और भी विशेष कारण है कि ये उनके प्रति अपनी दया व प्रेम प्रदर्शित करें। उनके प्रति दयाभाव के ही कारण उन्हें अपने आध्यात्मिक श्रानन्द का स्वार्थपूर्ण एकान्तवास में उपभोग करना कठिन हो जाता है। इस बात में इन्हें कोई अपमान नहीं जान पड़ता कि ये अपनी आध्यात्मिक उन्नति से नीचे उतरें और उन लोगों को अाशा व अानन्द प्रदान करें जो सांसारिक दलदलों में पड़कर निराश हो रहे हैं । ईश्वरीय श्रानुभूतिक उबास की तीव्रता ही उनके आदेश को सारे जगत् में प्रचारित करने के लिए प्रेरित करती है और वह उसी प्रकार ही समान प्रभावपूर्ण भी होती है . "परमात्मा ने ही यह उचित समझा है कि कबीर ने जो कुछ अनुभव किया है उसे भी प्रकट कर दे। जीव संसार के समुद्र में मग्न है और जो कोई भी इसे पकड़ लेगा वह पार जायगा।"* यह उपकारपूर्ण निर्देश ही प्रत्येक प्रकार के धर्म-संस्कार का आदेश हुश्रा करता है । जिसे लोग कबीर का अहंकार समझते हैं वह, वास्तव में अपने साथी जनों के प्रति प्रेम द्वारा प्रेरित था, क्योंकि इस मार्ग के पथिक के लिए 'अहंकार' घमंड वा प्रगल्भता बहुत ही दूषित बात है। अपनी यात्रा के समय उसका स्पष्ठ कर्तव्य हो जाता है कि वह विनम्रता का जीवन व्यतीत करे और जब वह सत्य की अनुभूति कर लेता है तो इस प्रकार की कोई संभावना ही नहीं रहती, उस दशा में तो प्रत्येक प्राणी ईश्वरवत ही दीखता है 'तू है' यह वाक्य 'मैं वही हूँ' का एक स्वाभाविक
- साईं यह विचारिया, साखी कहैं कबीर ।
सागर में सब जीव हैं, जे कोइ पकड़े तीर ।। क० ग्र०, पृ० ५६ ।