२७८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय सम्मत है। प्राध्यात्मिक साधना की किसी भी पद्धति की क्षमता की परीक्षा बुद्धि से हो सकती है जो मालिक के दर्शन द्वारा इसी समय प्राप्त हो सके । शरीर की मृत्यु के समय होनेवाला मोक्ष केवल उस- दशा को अंतिम रूप से प्रभावित कर देगा जो पहले से प्राप्त हो चुकी है, और निर्गुणियों का अपने पंथ के लिए इसी बात का दावा है । कबीर ने प्रार्थना की है कि हे ईश्वर मुझे जीते जी दर्शन दे दो ।* जीते जी इसी घर ( शरीर ) में ईश्वर से मिलना आवश्यक है, मरणोपरान्त के मिजन को मैं चर्चा भी नहीं करना चाहता। इसी प्रकार तुलसी साहिब ने भी कहा है। / यद्यपि निर्गणी भक्तों को साधना का स्वरूप व्यक्तिगत है...तो भी क्योंकि वे अपने आध्यात्मिक विकास के लिए जंगलों में नहीं जाते. बल्कि अग्नी साधना का क्षेत्र सामाजिक चेष्टाओं को ही समाज की बनाते हैं और साधना की विधियों का भी ध्यान उन्नति रखते हैं, उनका सामाजिक महत्व केवल इसी बात से भी कम नहीं है कि उनकी साधना में अपरलोक के प्रति उत्कट कामना बनी रहती है। वे विवश रहते हैं कि वे अ.ने समक्ष सांसारिक दुःखों व सुखों को रखा करें और उसी में उन बुराइयों के दूर करनेवाले प्रयत्न भी बीज रूप से विद्यमान रहते हैं। ईश्वरीय प्रेम जहाँ एक ओर संसार के प्रति उपेक्षा सूचित करता है वहाँ दूसरी ओर अपने सहजीवी प्राणियों के प्रति स्नेह भी उत्पन्न करता है क्योंकि सभी .
- जोवत पावे घर में स्वामी । मुए गए की बात न मानी ।।
घटरामायण, पृ० २८० । f बहुत दिनन के बिछुरै, माधौ, मन नहीं बाँधे धीर । देह छतों तुम मिलहु कृपा करि, भारतवंत कबीर ॥ कं. ग्रं॰, पृ० १६१ ।