२७१ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय उपयुक्त उदाहरणों द्वारा पूर्ण रूप से प्रमाणित हो जाता है कि निर्गुणियों की सहज समाधि एक चिरस्थायी दशा है। जो कोई उस पानंद का उपभोग करता है वह सांसारिक कर्तव्यों की भी यथानियम पालन करता रहता है और उसके कारण इसका रुक जाना नहीं समझा. जा सकता । जिस समय वह दशा उपलब्ध हो गई सारा दृष्टिकोण ही सदा के लिए बदल जाता है । वाह्य विषयों से पृथक् करने के लिए मन पर अंकुश नहीं लगाना पड़ता। स्वयं इन्द्रियाँ उस सहजज्ञान की ही सहायक बन जाती हैं,* वे अपना काम करना बंद नहीं करतीं ; उनका सब काम करना ईश्वरोन्मुख हो जाता है। उद्बुद्ध कबीर अपने मन को जहाँ कहीं भी वह चाहे जाने के लिए छोड़ देते हैं। वे जानते हैं कि जब उसने जान बूझ कर राम की शरण ले ली है तो वह उसे वही सर्वत्र दीख पड़ेगा ।। साधक-द्वारा उपलब्ध निम्नस्तर का दृष्टिकोण क्षणिक होता है और निर्गुण मत ने अपने अनुयायियों को उसके विरुद्ध सचेत भो किया है। चहूँ ओर घनघोर घटा आई, सुन्न भवन मन भावन । तिलक तत्त बेंदी पर झलकत, जगमग जोति जगावन ।। गुरु के चरन मन मगन भयो जब, विमल विमल गुन गावन । कहै गुलाल प्रभु कृपा जाहि पर, हरदम भादों सावन ॥ वही पृ० २.३ ।
- विरह जगावे दरद को, दरद जगावे जीव ।
जीव जगावे सुरति को, पंच पुकारे पीव ॥ वही भा० १ पृ० ११। अब मन जाहि जहाँ तोहि भावे, तोरे अंकुश कोइ न लावे । जहँ जहँ जाइ तहाँ तहँ रामा, हरिपद चीन्हि कियो विश्रामा । क० ग्रं०.५०२३६॥