चतुर्थ अध्याय नाचने में गाने लगता है। नृत्य हमारे उल्लास को प्रकट करने के लिए प्रदर्शित भी किये जाते हैं । अतएव, यह उपयुक्त है कि आध्यात्मिक उल्लास को नृत्य की संज्ञा प्रदान की जाय, किंतु इसे नृत्य कहने के कारण इसमें कोई शारीरिक चेष्टा अभिवांक्षित नहीं है। इसके साथ सूफियों में प्रचजित 'दौर' व 'समा' के नृत्य का कोई संबन्ध नहीं क्योंकि 'दौर' एक चपल व चक्रावर्तित नृत्य है जिसमें नर्तकों को 'या अल्लाह याहू' का उच्चारण करते हुए अपनी सामूहिक चेष्टानों को तबतक कायम रखना पड़ता है जब तक वे एक-एक कर विश्रांत नहीं हो जाते। 'समा' में अपनी बायीं एड़ी पर घूमना होता है. इसमें धीरे-धीरे अग्रसर होते हैं और अपनी आँखें बन्दकर तथा बाहें फैला कर नृत्य करते हैं और यह नृत्य कुछ विधियों के साथ भी श्रारंभ हुश्रा करते हैं । जैसा कि धरनी ने कहा है -- "वहाँ पर बिना पैरों के ही नृत्य करो और बिना हाथों के ताल देते जानो, सौंदर्य को बिना भाँखों के देखो और बिना कानों के ही गीत सुना इसके सिवाय, निर्गुणमत के अनुसार यह अतिचेतन की अवस्था, उन्मनदशा, सहज समाधि, जैसा कि यह अनेक प्रकार से पुकारी जाती है, उस प्रकार क्षणिक नहीं जान पड़ती जैसा कि विलियम जेम्स ने पश्चिमो रहस्यवादियों के संबन्ध में बतलाया है। सूफी भी इस उल्लास- मयी स्थिति को 'हाल' का नाम देकर इसे एक प्रकार की तन्मयावस्था कहते हैं जो केवल कुछ ही क्षणों तक वर्तमान रहा करती है । बसरा के अबदुल्ला हारिथ मुहासिमी ने कहा है “यह बिजली की भाँति करो।"
- 'अवारिफ़ल मारिफ़' पृ० १६५ व १६८ ।
बिन पद निरत करो तहां, बिन पद दै दै ताल । बिन नयनन छबि देखणा, श्रवरण बिना झनकारि ॥ सं० बा० सं०, भा० १ पृ० ११५ ।