चतुर्थ अध्याय २६६ ईश्वरीय उल्लास में मत्त होकर वह अपने को भूल जाता है । शरीर का कोई भी अर्थ नहीं रह जाता। वह गंभीर आध्यात्मिक प्रानंद में मग्न रहता है। प्रत्यक्ष रूप में वह पागल बन जाता है। बिहार- वाले दरियासाहब ने कहा है कि "मालिक के मिन जाने पर मेरी आँखों में श्रानन्द प्रतिबिंबित हो रहा है, हृदय उन्मत्त हो गया है और चित्त पागल बन जाता है। उसका प्रेमरस इतना गाढ़ा है. कि.इसने मुझे गूंगा बना डाला है।"* सहजोबाई ने अपने एक दोहे में साधक को असली उल्लास-दशा का परिचय दिया है। उनका कहना है कि हृदय में पागलपन व सर्वव्यापी उल्लास रहता है। न तो मेरा कोई साथी है और न मैं ही किसी के साथ हूँ। फिर भी यह पागलपन किसी प्रकार की रुग्ण दशा नहीं है। इसके विपरीत यह इंद्रियों का सम्यक् प्रकार विशुद्ध वा परिष्कृत हो जाना है जिससे वे सभी प्रकार के आध्यात्मिक स्फुरणों का प्रतिपादन कर सकें। कबीर कहते हैं, "जब मैं अपने भीतर निमग्न रहता हूँ तो लोग मुझे पागल कहते हैं; राम के लिए पागल होते समय, सतगुरु ने मेरे भ्रम को निमज्जित कर दिया।" .
- बेबाहा के मिलन सों, नैन भये खुशहाल ।
दिल मन मस्त मतबल हुआ, गूंगा गहिर रसाल ।। सं० ० बा० सं०, पृ० १२३ । मन में तो आनन्द रहे, तन बौरा सब अंग। ना काहू की संग है, ना है कोई संग ।। वही, पृ० १५८ । अभि अंतर मन रंग समाना, लोग कहै कबिरा बौराना । मैं नहिं बौरा राम कियो बौरा, सतगुरु ज़ारि दियो भ्रम मोरा ॥१४७॥ क० प्र०, पृ० १३५