२५६ चतुर्थ अध्याय भवों की उद्धृत कर देना उपयुक्त होगा। पहले गरीबदास को लीजिये जिनका मत चक्रों की संख्या के विषय में योगियों से मिलता है। वे कहते हैं 'मूल चक्र में गणेश का निवासस्थान है, रक्तवर्ण है और शब्द कलिंग वा 'क्लीं' है। स्वाद चक्र में ब्रह्मा व सावित्री का वास है और वहाँ का शब्द जिसे हंस ( अर्थात् विशुद्धात्मा ) उच्चारण करता है ओ३म है। नाभिकमल में लक्ष्मी के साथ विष्णु रहते हैं और वहाँ का शब्द 'ह' है जिसे बिरले भक्त ही जानते हैं । हृदय के चक्र में पार्वती के साथ महादेव जी रहा करते हैं । और वहाँ पर सुन्दर वर्ण का सोऽहम् शब्द है । कंठ के कमल में अविद्या रहती है जो ज्ञान, ध्यान एवं बुद्धि को नष्ट कर देती है । यह चक्र नीला और यहाँ पर काल प्राण को फँसाया करता है त्रिकुटो में पूर्ण एवं सर्व शक्तिमान सद्गुरु निवास करते हैं। यहाँ पर मन ओर पवन समुद्र अर्थात् परमात्मा के साथ हिल-मिल जाते हैं और सुरत निरत शब्द का उच्चारण हुआ करता है । सहस्र कमल वा सहस्त्रार में स्वयं साहब इस प्रकार रहते हैं जैसे फूल सुगंध रहती हैं। वहाँ पर सम्पूर्ण विश्व का मालिक और सभी उपाधियों से रहित जगदीश व्याप्त है उसकी प्राति के लिए मीन का मार्ग (अर्थात् मूल स्रोत की ओर धारा के विरुद्ध आगे बढ़ना ) अपना लो। ईड़ा, पिंगला व सुषुम्ना को प्राप्त करो और इस प्रकार उस कठिन मार्ग पर चलो। * शिवदयाल अपने अनुभवों का एक बहुत विशद विवरण देते हैं। यहाँ पर एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे पहले के संत त्रिकुटो को जहाँ श्राज्ञा चक्र में रखते थे और सहस्रदल कमल को उसके आगे ले जाते थे, । शिवदयाल तथा अन्य वैसे अतिमात्रा दलवाले संत त्रिकुटी और आज्ञाचक्र को पृथक्-पृथक् मानते हैं और सहस्त्रदल को उसके नीचे रखा करते हैं। इसके सिवाय शिवदयाल अपने अनुभवों का वर्णन गरीब दास की बानी । .
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