चतुर्थ अध्याय करती है जो किसी भी योग संबंधी मत के लिए आधार-स्वरूप माने जाते हैं। अशब्दों के साथ ही उपनिषद् कतिपय रंगों तथा प्राकृतियों का भी उल्लेख करते हैं 'श्वेताश्वतर' में कहा गया मिलता है कि "योग साधना में साधक को ब्रह्म का अंतिम साक्षात् करने के पहले नीहार, धूम, सूर्य, अग्नि एवं वायु तथा विद्युत, स्फटिक और चन्द्रमा की प्राकृतियों का अनुभव होता है।" वृहदारण्यक में भी पुरुष के उन आकारों का भी उल्लेख आता है जो इस प्रकार के अनुभवो जनों के लिए गौरव-स्वरूप हैं और उनका रंग कुंकुम वर्ण वाले इन्द्र गोप. अग्नि शिखा, कमल-पुष्प तथा अचानक चमक जाने वाली विद्युत के समान बतलाया है।x छान्दोग्य ने उस हिरण्यगर्भ को स्वर्णमयी मूछों, सुनहले केशों अथवा नख-शिख तक स्वर्णमय दोख पड़ने वाला कहा है + और मुण्डक ने भी उसका वर्णन शुभ्र ज्योति व सभी ज्योतियों की भी उस ज्योति के रूप में किया है जो किसी हिरण्यमय कोश में बंद है। कबीर ने भी उस दिगम्बर की चर्चा की है जो स्वर्ग द्वारा प्राच्छादित रहा करता है । फिर भी उपर्युक्त उपनिषद् ग्रंथों से यह स्पष्ट नहीं होता कि आध्यात्मिक अनुभव की विभिन्न ( श्रवण, दर्शन अथवा प्राकृति संबंधी) दशाओं में कोई पारस्परिक सम्बन्ध भी है या नहीं और न यहो कि इस प्रकार का संबंध होते हुए भी ये भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ उस आध्यात्मिक यात्रा की विभिन्न स्थितियों को सूचित करती हैं अथवा इनका आविर्भाव
- 'श्वेताश्वतर उपनिषत्' द्वि० २ ।
x 'बृहदारण्यक उपनिषत् ' द्वि० ३-६ । + 'छान्दोग्य उपनिषत् पृ० ६-६ ।
- 'मुण्डको पनिषत्, हि. २-६ ।