२५४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय की मनोवृत्ति की यात्रा के ही कारण , यह भिन्नता आ जाती है जो लम्बे व विकट मार्ग को भी सरल व सहज बना देती है। अतः प्रेरणा के पूर्ण प्रभाव में, यौगिक साधनाओं का अधिक से अधिक अच्छा परिणाम नहीं हो सकता है कि साधक को केवल भौतिक शक्तियाँ ही प्राप्त हो जायें और उसे स्पष्ट हानि भी उठानी पड़े, क्यों- कि उनके द्वारा भिन्न-भिन्न चक्रों से नियंत्रित स्थानों की विभिन्न इंद्रियों में उचित से अधिक क्रियाशीलता पा जा सकती है और उसके कारण अंतिम कोटि को अनैतिक वासनाएँ तथा अन्य प्रकार के शारीरिक दोष भी उत्पन्न हो सकते हैं । इसलिए साधक एवं गुरु दोनों को ही चाहिये कि सभी प्रकार की उन वाद्य प्रवृत्तियों के निग्रह करने तथा वहिष्कृत करने में जागरूक रहें जो कि साधक की मनोवृत्ति को प्रभावित करने की ओर अग्रसर हो रही हो। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पूर्णत: योग्य गुरु के निरीक्षण के बिना यौगिक साधनाओं में प्रवृत्त होना कितना भयावह है क्योंकि बिना ऐसे गुरु के, साधक अपने को उक्त प्रकार की वाह्य प्रवृत्तियों की हानि से बचा नहीं सकता है। निगुण संप्रदाय के पहले संत इसी कारण केवल उन्हीं साधनाओं को अपनाते थे जिनसे किसी प्रकार की वहिमुर्खता का भय नहीं रहता था। परन्तु प्राचीन पंथीय हिंदू भावनाओं का समावेश होते ही निर्गरण संप्रदाय के अंतर्गत हठयोग सम्बन्धी भिन्न-भिन्न मुद्राओं, बंधों तथा आसनों को भी स्थान मिलने लगा । एक ऐसे पद के अनुसार जिसका कबीर की रचना होना संदेह रहित नहीं कहा जा सकता और जिसका उल्लेख भी इसके प्रथम कई बार हो चुका है । साधक को चाहिए कि शारीरिक शुद्धि के लिए की जाने वाली उन धौती, नौली. वस्ती एवं आसनों जैसी युक्तियों का भी अभ्यास करे जिन्हें हठयोग की साधना में महत्व दिया जाता है और उनके साथ-साथ हठयोग के प्राणायाम की भी क्रिया करे । साधु की योग्यता-सम्बन्धी प्रकरण में २
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३३६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।