. चतुर्थ अध्याय गई जहाँ जाकर उसने मानसरोवर ( अमृत के कुड) में स्नान किया । वहाँ पर उसे गङ्गा ( ईडा ) यमुना ( पिङ्गला) एवं सरस्वती (सुषुम्ना) का रहस्य जान पड़ा । प्रयाग के कमल अथवा उस संगम स्थान से जहाँ पर ये तीनों नाड़ियाँ मिलती हैं. सुरति, अगम के प्रेमरस में मत्त होकर सत्त के निवास स्थान की ओर बढ़ी जहाँ सतगुरु का निवास है और फिर जहाँ अगम पुरुष भी रहते हैं । अगम पुरुष के द्वार पर पहुँच कर सुरति रुक गई क्योंकि रस के द्वारा वह पूर्णतः सराबोर हो रही थी। वहाँ पर वह इस पर ऊपर चढ़ने व नीचे उतरने लगो जिस प्रकार मकड़ी अपने धागे पर किया करतो है (वह दशा जो सद्य:प्राप्त आध्यात्मिक चेतना के जरना वा स्थायित्व के प्रथम पाया करती है ) सुरति की यही दशा रात-दिन रहा करती है और प्रभु से मिलने की चेष्टा के अतिरिक्त, उसे अन्य कुछ भी पसंद नहीं। इस प्रकार सुरति ने नाम के लोक में उस चौथे पद पर जहाँ सत्तनाम का स्थान है, अपना निवास कर लिया है। वह अपने मूल में समा गई है। इस प्रकार मुझे श्रादि व अंत का भेद मिल गया है बार मेरे जन्म व मरण के दुःख कूट गये हैं तथा कर्म के सभी बन्धन भी छिन्न-भिन्न हो गये इस बात का प्रमाण कि शिवदयाल ने अपनी बतलायी हुई साधना में पवन का उपयोग किया है, उनके ऐसे उद्गारों में मिल जाता है "अरे पागल, अपने प्रत्येक श्वास-प्रश्वास के क्षण को नाम स्मरण में लगाोx और फिर जो कोई भी शब्द के रस का पान, प्रत्येक श्वास. प्रश्वास में, करता है वह उस महल तक पहुँच कर वहाँ निवास कर लेता ® वही पृ० ३७४। x स्वासों स्वास होस कर बौरे, पल पल नाम सुमिरना। 'सारवचन' पृ० २७१ ।
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