चतुर्थ अध्याय २५६ पर और शेष पवन वाले अंश पर विशेष बल देते हैं । अपनी महत्ता की भावना से अभिभूत होने के कारण, ये अतिशयतावादी योग के उस अंश को महत्व देना नहीं चाहते जिससे पता चल जाय कि उनकी भी साधना पद्धति उन्हीं के सिद्धान्तों पर आश्रित है जो प्राचीन योगमत के श्राधार स्वरूप हैं। परंतु यह भी सच है कि इन अतिशयतावादियों ने भी श्वासवाले अंश की उपेक्षा नहीं की है। इस बात को उदाहृत करने के लिए मैं तुलसो साहब के उन तरह शिष्यों में से एक के साधनाभि- निवेश को विज्ञप्ति यहाँ उद्धृत करता हूँ, जिन सभी ने अपने गुरू की सेवा में अपने-अपने अभ्यासक्रम की सूचना प्रस्तुत की थी जिन्हें उन्होंने 'घटरामायण' लिख दिया है। फूलदास कबीर-पंथी ने एक रूपक द्वारा जिसमें कबीरपंथ को विधियों के साथ उसकी साधना की समानता दिखलायी गई है और जिसकी लाक्षणिकता का रहस्य उसने अब समझ पाया है, इस प्रकार वर्णन किया है "मैंने सुरति के नारियल को मोड़ दिया और प्रेम के कदलीपत्र को छेद डाला; मैंने सुरति-द्वारा त्रिकुटो का भेदन करके चौका पर चँदवा तान दिया। अष्टदल कमल ( नाभिचक्र जिसमें प्राचीन योगमतानुसार दस दल होते हैं.) के ब्रीच पवन सुपारी है जहाँ मैं सुरति के साथ उदित व मुदित (श्वास-प्रश्वास की वे दो धाराएँ जो क्रमशः इड़ा व पिंगला से होकर प्रवाहित होती और जिन्हें ये नाम का कारण, समय विशेष पर केवल किसी एक का हो निकलती होना और दूसरी का तब तक निर्बल वा मुं दी हुई रहना है ) की सहायता से पहुँच गया । तब मैं खिड़की ( ब्रह्मरंध्र वा सहस्त्रार) के आगे वाले प्रदेश तक ऊपर चला गया और १४ हाथ बम्बे ताम्बूल पत्रों (जो तुलसी साहब के अनुसार चौदह तवक वा स्तर है ) से होता हुआ पहुँचकर, अगम के सामने वह पान भेंट कर दिया जिसे लेकर उसके पास जाने का मुझे गुरुद्वारा आदेश मिला था ( गुरू को शिक्षा से पृथक्-पृथक् की सत्ता मिलन की ओर
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