cular Literature of Hindustan' ) सं० १६४६ में उनका एक आलोचनात्मक परिचय दिया था जो अधिकतर 'शिवसिंह सरोज' पर आश्रित था। इन लेखकों ने अपने विचार बहुत कुछ अधूरी सामग्रियों के ही आधार पर निश्चित किये थ। उस समय तक न तो स्व० पं० चंद्रिकाप्रसाद त्रिपाठी के "अगवंधू" वा 'स्वामी दादू- दयाल की वाणी, (सं० १९६४ ) स्व. बा. बालेश्वरप्रसाद की 'संतवानी पुस्तक माला' ( सं० १९६५ ) व स्व० डॉ० श्यामसुन्दरदास की 'कबीर ग्रंथावली' जैसे मूल साहित्य का प्रकाशन हो पाया था और न डाक्टर मेकॉलिफ के 'दि सिख रिलीजन' ( The Sikh Religion ) सं० १६६५ डॉ० रवींद्रनाथ ठाकुर की “वन हण्ड्रेड पोयम्स आव कबीर" (One Hundred Poems of Kabir) सं० १९८० डॉ० तारादत्त गैरोला के 'साम आफ दादू' ( Salms of Dadu ) ( सं० १९८६ ) अथवा प्रो० तेजासिंह के "दि जपजी" (The Japji) जैसे सुन्दर अनुवाद ही निकल पाये थे जिनका अध्ययन कर कोई निर्णय किया जाता । रे० वेस्टकाट ( सं० १९६४ ) डॉ० फर्कुहर ( सं० १९७७ ) डॉ० भांडारकर ( सं० १९८५ ) डा० कीथ (सं० १९८८) जे से विद्वानों की धार्मिक इतिहास सम्बन्धी रचनाएँ रे० प्रेमचन्द्र ( मं० १९६८) व रे० अहमदशाह ( सं० १९७२ ) द्वारा किये गये बीजक के अनुवाद तथा 'मिश्रबंधु' का 'विनोद' (सं० १९६७) पं० रामचंद्र शुक्ल ( स० १९८६ ) व डा० सूर्यकांत शास्त्री ( सं० १९८७ ) साहित्यिक इतिहास भी इसी काल में निर्मित व प्रकाशित हुए और प्रायः इसी समय से इस विषय पर अच्छे-अच्छे निबंध भी लिखे जाने लगे। इस प्रकार डा० बड़थ्वाल के इस क्षेत्र में आने के पहले भिन्न-भिन्न संतों व उनके पंथों के अध्ययन का प्रारम्भ हो चुका था। उनकी कृतियों के प्रामाणिक संस्करण निकालने तथा उनके अनुवाद तक करने की .
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