२४६ हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय द्वारा स्वीकृत प्रणाली, जो चक्रों को उत्तेजित करने के लिए प्रयुक्त होती है, आँख को ही, आध्यात्मिक अभ्यास के प्रस्थान बिंदु का महत्व देती है। आँख की कनीनिका, जिसके लिए, उनके शिष्य हुजूर साहिब के अनु- सार पारिभाषिक शब्द 'तिल' है "श्रात्मा का वह स्थान है जहाँ पर जाग्रत् अवस्था में सांसारिक दुखों वा सुखों का अनुभव हुआ करता है स्वमावस्था में प्रात्मा भीतर की ओर ऊपर गगन-प्रदेश में खिंच जाता है। तुरीयावस्था प्रात्मा को क्रमशः अपने स्थान से हटाकर आँख की कनी- निका में लाने पर उपलब्ध होती है जो क्रिया उसो प्रकार की जाती है जिस प्रकार मृत्यु के समय वह ऊपर उठती वा खिंच जाया करती है।" यह कथन उनके गुरू के निम्निलिखित बचन का भाष्य रूप है- "नैन उलटि चुत मोड़ कर, चढ़े पुकारे संत । सारवधन २, पृ० १०२ । तथा- "ऊंची नीची घाटी उतरी, तिलकी उलटी फेरी पुतली । वही, भाग २, पृ० १६१ । अर्थात् 'आँख की पुतली को उलट कर और सुरति को मोड़ कर संत लोग ऊपर चढ़ा करते हैं।' 'आँख की पुतलो को उलट कर मैं ऊँचे शिखरों तथा गहरी घाटियों तक पहुँच गया।' उनके शिष्यों के लिए यह भी उपदेश है कि वे अपने गुरू की सेवा में रहते समय , उनकी आँखों पर ही अपनी दृष्टि लगाये रहें । तुलसी साहब ने भी कहा है कि "आँख की पुतली से होकर ही प्रवेश करो, वहाँ पहुंचने का वही मार्ग है।" केवल तुलसी साहब व राधास्वामी के अनु- यायी मात्र ही आँख को इतना आध्यात्मिक महत्व नहीं देते । सभी राधास्वामी मत प्रकाश, पृ० २४ ।
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