हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय चन्द्रमा सत्ता अथवा हमारे मौलिक अमरत्व का प्रतीक है और इसी प्रकार सूर्य भी विकास वा हमारे उस पक्ष का द्योतक है जो परिवर्तन- शील व नाशमान है ! अमरत्व के रस का विपले उस में परिवर्तित होकर उस प्रकार के नाश का कारण बन जाना भो सता से विकास में परिणत होने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। भौतिक पक्ष में उत्पादन भी परिवर्तन के तत्व का ही व्यक्त व वाह्यरूप है। शरीर में स्रावित होनेवाला उसमें संचित जीवन-तत्व का प्रोजस नामक परिणाम है जिसके द्वारा ईश्वरीय गुणों की उपलब्धि होती है और योगियों का शरीर एक प्रकाश-मंडल से परिवृत हो जाता है। मूलाधार-स्थित सूर्य द्वारा रस के न निकलने की दशा में प्रत्येक व्यक्ति उस ईश्वरीय शक्ति का अनुभव कर सकता है जिससे योगियों को अमरत्व मिला करता है। जीवन तत्व के रस के शरीर के बाहर सूर्य कहलाने वाले कतिपय मांसपिंडों द्वारा, निकलने को ही लाक्षणिक ढंग से विषैले रस का शरीर में प्रवाहित होना कहा जाता है। जोवन-तत्व वाले रस को जो सूक्ष्म बिंदु व सत्ता का ही स्थूल रूप है निगुण मत के अनुसार भी सुरक्षित रखना आवश्यक है। ऊपर के उन आध्यात्मिक पदों तक पहुँचने के लिए जिसमें अनाहत नाद वा परमात्मा शब्द सुन पड़ता, तथा अमृत रस का स्वाद मिलता है यह आवश्यक है कि ये आध्यात्मिक शक्ति के केन्द्र भी सक्रिय हो जायँ । योग साधना की शास्त्रीय पद्धति का अष्टाङ्ग योग भी इसी बात को लक्ष्य करता है । इसका मुख्य साधन प्राणायाम वा श्वास का नियमन करना है। श्वास एक प्रकार से शब्द का ही सूक्ष्मतम रूप है। योग पद्धति में श्वास-विज्ञान अपनी पूर्णता तक पहुंच गया है। जब श्वास कुछ समय तक बायें नथने से चलता है तो इसका ईडा अथवा चन्द्रनाड़ी से होकर चलना कहा जाता है । और इसी प्रकार जब यह दाहिने नथने से जाता है तो इसका पिंगला वा सूर्यनाड़ी से होकर चलना बतलाया जाता है और जब कभी यह दायें तथा बायें नथने से बारी-बारी होकर चला करता है
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