के भक्तमात्र थे, इन्होंने अपने-अपने समय के धार्मिक आंदोलनों में भाग लेकर अपने-अपने नामों पर नवीन पंथ चलाने की चेष्टा की थी और अपनी विचित्र प्रकार के रहन-सहन एवं अटपटी बानियों के कारण इन्होंने अपने लिए बहुत से अनुयायी भी बना लिये थे । इनकी अन्य भक्तों से भिन्नता, इनके सिद्धांतों की एकरूपता, इनकी साधनाओं की विलक्षणता अथवा इनकी मुख्य देन के प्रति किसी ने विचार नहीं किया था। संतों की इस परंपरा को एक सूत्र में ग्रथित करने तथा उनके मत का व्यापक रूप निश्चित करने में कई कठिनाइयाँ भी पड़ती थीं । केवल दो-एक को छोड़कर इनमें से अन्य संतों का कोई साधारण परिचय भी उपलब्ध नहीं था । इनकी बानियाँ या तो इनके अनुयायियों के पास हस्तलिखित रूप में सुरक्षित पायी जाती थीं अथवा विकृत होकर यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हुई मिल जाया करती थीं। इसके सिवाय इन संतों के नामों पर चलनेवाले विविध पंथों के रूप और प्रचार- पद्धति में भी महान् अन्तर आ गया था। जिस उद्देश्य को लेकर उनका सर्वप्रथम संघटन हुआ या उसे, काल पाकर, वे भूल से गये थे और अन्य प्रकार के प्रचलित संप्रदायों के अनुकरण में अधिक लग .जाने के कारण, वे क्रमशः साधारण हिंदू समाज में ही विलीन होते जा रहे थे। इन पंथों के अनुयायियों ने, अपने मूल प्रवर्तकों को देवी शक्तियों से सम्पन्न मानकर उनकी पौराणिक चरितावली भी बना डाली थी और उनके मौलिक सिद्धांतों के सच्चे अभिप्राय को समझने की प्रायः कुछ भी चेष्टा न करते हुए उनपर अपने काल्पनिक विचारों का आरोप कर दिया था। इस कारण उनका वास्तविक रूप जान लेना अथवा उनके महत्व का समुचित मूल्यांकन करना कोई सरल काम नहीं था। उक्त बाधाओं के बने रहने के कारण इन संतों के सम्बन्ध
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